Wednesday, March 18, 2015

इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या'

आत्महत्या पर लिखी गयी
तमाम कविताओं को पढ़कर देखा
कुरेद डाले मैंने सारे लेख
बहस -बहस गुजर कर देखा
पर उस पीड़ा का नहीं हुआ अहसास 


आत्महत्या महज़ एक शब्द नहीं है
जिसे लिख देने भर से
या सुन लेने भर से हम अहसास कर पाए उस पीड़ा को
चाहे हो फांसी का फंदा
या आग की लपटें हों
इसकी पीड़ा का अनुभव तो उस तक ही सीमित रहता है
जो मरता है लटककर
या जलकर
या किसी और माध्यम से

दर्द का कुछ हिस्सा छोड़ जाता है
वह अपने परिजनों के लिए
वे भुगतते हैं इसे उमर भर !
इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या'
कि खत्म हो जाए किसी कविता
या लेख
या किसी बहस का हिस्सा बनकर

बहुत संघर्ष करना पड़ता है खुद से
इस निर्णय के लेने के पहले और उसके बाद
कितने विचार और कितनों का ख्याल आता होगा सोचिए
यदि वह कोई पिता है
तो बार -बार सोचता होगा
कि क्या होगा उसकी किशोर बेटी का भविष्य
कैसे जियेगी उसकी पत्नी जिसने बीता दिए
कई बसंत अपने जीवन के उसके पतझड़ के साये में !
और जवान बेटा सोचता होगा बार -बार
अपनी बूढ़ी माँ, बहन और दोस्तों के बारे में

दरअसल हम अक्सर नहीं गुजर पातें हैं
इन सब दर्दों से ,
इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या' !!

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