अब कभी -कभी मैं
सूरज को सोचता हूं
उसके अकेलेपन को सोचता हूं
उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं
कैसे सह रहा है वह
इस जलन को सदियों से
ख़ामोशी से ?
निथर हो कर
मैं यह सोचता हूं .
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...