Saturday, December 25, 2010

सूरज को सोचता हूं

अब कभी -कभी  मैं 
सूरज को सोचता हूं 
उसके अकेलेपन को सोचता हूं 
उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं 
कैसे सह रहा है वह 
इस जलन को सदियों से 
ख़ामोशी से ?
निथर हो कर 
मैं यह सोचता हूं .

Thursday, December 23, 2010

एक काले गुलाम की याद ताज़ा करते हैं वे

जिंदा नही हैं वे
फिर भी जी रहे हैं
मशीनी मानव की तरह
और जाग रहे हैं रात भर
उल्लू की तरह
अमेरिकी दलाल बास की
इशारों पर सिर हिलाते हुए /
एक काले गुलाम की याद  ताज़ा करते हैं वे
अपमान सहकर  भी
खुश होने का नाटक करते हैं
क्या मैं इन्हें --
मन और चेतना से जीवित मान लूं ?
जानवरों को भी देखा है मैंने
विद्रोह करते --
अन्याय के विरुद्ध
क्या आज का मानव
सच में मजबूर है
एक कैद जानवर से ज्यादा ?

Wednesday, December 8, 2010

नेताजी के काक

जो लिप्त हैं अपराधों  से
बन बैठे हैं बाबा
पूरे देश में चल रही है
इन्ही बाबाओं की हवा

जिस जंगल में रहते हो
लकड़ी - महुया बीनते हो
अब बिनेगे खाक
किउंकि --
तुम्हारे जंगल  पर मंडरा रहे हैं
नेताजी के काक
इसीलिए अब तो
मत रहो अवाक्

जंगल तुमसे ले लेंगे
एक कागज़ पर
आरक्षण तुम्हें दे - देंगे
जंगल में क्या करोगे
भूखे पेट मरोगे

जल्दी - जल्दी  शहर में आओ
यहाँ आकर भीड़ बढाओ
ठेकेदार के सामने हाथ फैलाओ
भीख तुम्हें  वह दे देगा
इज्ज़त तुम्हारी लेलेगा
फिर नेता जी आयेंगे
संवेदना जताएंगे
आश्वासन देकर जायेंगे इंसाफ का
तुमसे वोट मांगेंगे
दे दिया तो टिकोगे
नही दिया तो पिटोगे
इसी तरह से मिटोगे ?

Thursday, December 2, 2010

रणभेरी अब बज चुकी है

सहमे -सहमे से  किउन है सब
स्तब्ध सब किउन है आज
गूंगे से अवाक् किउन है आज ?
गाज गिरी क्या  तुम पर आज
कैसे करोगे खुद पर नाज़
उठो , जागो फिर से आज
देखो आकाश में
मंडरा रहे बाज़
नज़रुल बुलाये
तुम्हें --
हाथ में लिए अग्निवीणा का साज़
रणभेरी अब बज चुकी है
देखो कबीर कह रहे हैं
कब तक सहोगे  इनका राज ?
देखो आगये बंदर
खुद को कह रहे सिकंदर
क्या यही लिखेंगे
हमारा मुकद्दर ?

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...