Monday, December 19, 2011

हो कभी ऐसा



हो कभी ऐसा
कि मैं भी मुक्त हो जाऊं
उन पुरानी यादों से
मानसिक वेदना
और दिल की पीड़ा से
तब सोचुं मैं
केवल अपने बारे में

फिर कोई
ऐसी शाम आये
जब मैं रोऊँ
बैठकर अकेले में
तब तुम्हें मेरी याद आये

जानता हूं
कल्पनाएँ सच नही होती
लिख रहा हूं फिर भी
तुम्हारा नाम
दीवारों पर
मेरी बुरी आदतों में
ये भी शुमार है
क्या करूँ ...........
मजबूर हूं

Saturday, December 3, 2011

तीन कवितायेँ

१.पतंग  

नीले आकाश में
जब उड़ती हैं
रंगीन पतंगें
और परिंदों का एक झुंड
लगाता है होड़

खूब ढील देता हूँ
मैं अपनी पतंग की डोरी को
छूने  को --
खूब -खूब  ऊंचाई

पर परिंदे माहिर हैं
उड़ान भरने में
जीत जाते हैं ..वे

सीख लेता हूँ  फिर से
ज़रूरी है माहिर होना अपने फन में
जीत के लिए .........


.आंसू  न बहाना 


मेरे शव पर
आंसू  न बहाना
क्योंकि--
पानी में सड़ कर फूल जाता है शव

महज़ औपचरिकता
के नाम पर
मत आना
अंतिम दर्शन को
हंस पड़ेंगे सभी रोते -रोते
तब --
मेरी  मृत देह
सह न पायेगा
तुम्हारा उपहास

बस दबे पावं आकर
ले जाना  जो कुछ
पड़ा है तुम्हारा
मेरे उस कमरे में .....

३. देर होने से पहले 


मेरे पास नहीं है
तुम्हारा पता
और मुझे
खुद का खबर नहीं
पर मैं खोया हुआ नहीं हूँ
ज़मीन की बात है
हूँ  कहीं  इसी जमीं पर
ख़ोज सको तो ख़ोज लो
देर होने से पहले ...........


इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...