Monday, December 19, 2011

हो कभी ऐसा



हो कभी ऐसा
कि मैं भी मुक्त हो जाऊं
उन पुरानी यादों से
मानसिक वेदना
और दिल की पीड़ा से
तब सोचुं मैं
केवल अपने बारे में

फिर कोई
ऐसी शाम आये
जब मैं रोऊँ
बैठकर अकेले में
तब तुम्हें मेरी याद आये

जानता हूं
कल्पनाएँ सच नही होती
लिख रहा हूं फिर भी
तुम्हारा नाम
दीवारों पर
मेरी बुरी आदतों में
ये भी शुमार है
क्या करूँ ...........
मजबूर हूं

Saturday, December 3, 2011

तीन कवितायेँ

१.पतंग  

नीले आकाश में
जब उड़ती हैं
रंगीन पतंगें
और परिंदों का एक झुंड
लगाता है होड़

खूब ढील देता हूँ
मैं अपनी पतंग की डोरी को
छूने  को --
खूब -खूब  ऊंचाई

पर परिंदे माहिर हैं
उड़ान भरने में
जीत जाते हैं ..वे

सीख लेता हूँ  फिर से
ज़रूरी है माहिर होना अपने फन में
जीत के लिए .........


.आंसू  न बहाना 


मेरे शव पर
आंसू  न बहाना
क्योंकि--
पानी में सड़ कर फूल जाता है शव

महज़ औपचरिकता
के नाम पर
मत आना
अंतिम दर्शन को
हंस पड़ेंगे सभी रोते -रोते
तब --
मेरी  मृत देह
सह न पायेगा
तुम्हारा उपहास

बस दबे पावं आकर
ले जाना  जो कुछ
पड़ा है तुम्हारा
मेरे उस कमरे में .....

३. देर होने से पहले 


मेरे पास नहीं है
तुम्हारा पता
और मुझे
खुद का खबर नहीं
पर मैं खोया हुआ नहीं हूँ
ज़मीन की बात है
हूँ  कहीं  इसी जमीं पर
ख़ोज सको तो ख़ोज लो
देर होने से पहले ...........


Tuesday, November 8, 2011

वादे



सारे वादे तुम्हारे 
मैंने रख दिया है 
दिल की  किताब में 

सूख चुके हैं 
सभी वादे 
किताब की फूल की  तरह 
छूने से डरता हूं 
 टूट न जाये कहीं.........

Tuesday, November 1, 2011

गोबरधन असमय नही मरता

गोबरधन असमय नही मरता
यदि मिल जाता उसे
दो मुट्ठी चावल

गोबरधन के बच्चे
सीख जाते
 लिखना अपना नाम
यदि मिल जाता उन्हें
दाखिला किसी सरकारी स्कूल में

नही लगाती फांसी गोबरधन की बीवी
यदि आ जाती पुलिस
उसकी इज्ज़त जाने  से पहले

यह अच्छा हुआ कि
गोबरधन नही जनता था
अपने अधिकारों के बारे में
दहल जाता उसका दिल
यदि  एक बार पढ लेता
वह भारतीय संविधान
मरने से पहले ........................

Sunday, October 23, 2011

दरारें


दरारें बहुत घातक होती है
चाहे कहीं हो
दीवार में
या रिश्तों में
बालू -सीमेंट भर सकती हैं
दीवार की दरारें
किन्तु -
रिश्तों की दरारें
नही भरती किसी भी सीमेंट से
बचा के रखिये
रिश्तों को --
हर दरार से ...........

Thursday, September 1, 2011

खंडहर

शहर के बीचों -बीच
तन्हा खड़े 
खंडहर की दीवारों पर 
खुदे हुए हजारों नामों के बीच
मैंने कभी नहीं खोजा 
अपना नाम 
यूं  भी कभी
हिम्मत नहीं कर पाया , कि
पत्थरों पर लिखुँ 
मैं अपना नाम 
जब लिख नहीं पाया
कभी किसी दिल पर /

पत्थर तो  सह लेगा 
हर दर्द को 
दिल कहाँ सह पायेगा
नुकीले चुभन की पीड़ा ?
बेजुबान खंडहर की दीवारें 
चीखेगी नहीं कभी 
किन्तु अहसास है मुझे 
चुभन की पीड़ा की /

मेरे भी दिल पर कभी
लिखा था किसी ने 
अपना नाम 
एक लम्बी रेखा खींच कर 
आज कह नहीं सकता यकीन से 
कि -उसे याद है 
उनका  नाम मेरे दिल पर खुदा हुआ 
किन्तु-
बहते लहू धारा का  निशां
आज भी बाकी है
मेरे दिल पर //

Friday, August 26, 2011

मेरी बातें ....


बस तुम से 
तुम तक 
रहे मेरी बातें
जब कभी तुम्हें याद आये 
वो चांदनी रातें 
ठीक मेरी तरह 
हमेशा सुरक्षा का एक घेरा चाहती हैं 
मेरी बातें ....

Sunday, August 14, 2011

आज़ादी की ६५वीं वर्षगांठ की मुबारक बात


सोम से शुक्रवार तक 
जो चिपके रहते थे कम्पुटर से 
सजाते थे आंकड़े 
अमेरिका के लिए 
आज आंकड़ो का अमेरिका 
धरासाई है 
और वे खोज रहे हैं नई नौकरियां 
और --
उधर दिल्ली के 
लालकिले पर चड़कर
भारत के भाग्य विधाता 
दे रहे हैं भाषण ---
राष्ट्र मंडल खेल से लेकर 
मुंबई आदर्श कांड तक 
इस पारी की 
उपलब्धियां है 
और जो मारे गए हैं 
फर्जी पुलिसिया मुठभेड़ में 
रेल दुर्घटना में 
मुंबई ब्लास्ट में 
कर्ज के बोझ से 
बाढ में 
भूख मरी से 
उन सबको दे रहे हैं 
मुबारक बात  
आज़ादी की ६५वीं वर्षगांठ की //
-- 


Wednesday, August 10, 2011

मैं आलिंगन करूँगा तुम्हारा


तुम्हारे वादों पर 
भरोसा नही 
खुद को खोज रहा हूं भीतर 
हो गया अहसास जिस दिन 
 मेरे होने का 
मेरे दोस्त 
मैं आलिंगन करूँगा तुम्हारा .

Wednesday, July 20, 2011

साईकिल वाला लड़का कौन है ?

वह साईकिल वाला लड़का 
कौन है 
जो हर शाम तुम्हारी गली में आकर 
तुम्हारे घर के नीचे 
लगाता है चक्कर ?
मत कहो कि --
तुम नही जानती हो उसे 
कभी नही देखा आज से पहले उसे 
ठीक सूरज ढलते समय 
तुम भी तो खोलती हो 
सड़क की तरफ वाली खिड़की 
और देखती हो बेचैन नज़रों से 
सड़क की ओर 
और वह बांका छोरा
गर्दन घुमाये  देखता है तुम्हें 
मुस्कुराकर //

Wednesday, July 6, 2011

पूर्ण कविता

आज एक नई कविता का 
बीज बो रहा हूं 
इस बीज से -
जब अंकुर फूटेगा , तभी 
मेरी कविता की शुरुआत होगी 
फिर एक 
नन्हे पौधे के रूप में 
बाहर आएगी मेरी कविता 
और तब 
मैं उसे पानी और धूप दूंगा 
किन्तु --
जल्दी  के फेर में 
कोई रसायन नही डालूँगा 
क्योंकि रसायन 
मृदा की उर्वरकता को 
नष्ट कर देता है 
मेरी कविता का पौधा 
विशुद्ध होगा 
एक सुंदर छायेदार वृक्ष बनने तक 
मैं प्रतीक्षा करूँगा 
और जब उस वृक्ष को देखेने  और पढने  के लिए 
पाठक स्वम आयेंगे 
मेरी कविता पूर्ण होगी //

Saturday, June 11, 2011

मामूली बात नहीं

पहले लिखना 
और फिर मिटाना 
आसान काम नहीं 
किन्तु इस कार्य को किया है 
तुमने बड़ी आसानी से 
लिखने और फिर मिटाने की 
यह कला कहाँ से सीखी तुमने ?
तुम्हे भीड़ से छुपाना 
आसान न था 
फिर भी छुपा कर रखा था मैंने तुम्हे 
अपने हृदय में 
और तुमने दिल को ही छेद डाला 
दर्द को छुपाना  आसान नहीं 
आँखों  की  भाषा  
पढने वाले लोग अनेक हैं इस जहाँ में 
जंगल  के सन्नाटे में 
दबे पांव निकल जाना 
मामूली बात नहीं 
और मैं निकल गया 
तुम्हे अहसास भी नहीं हुआ 
यह कमाल है //

Monday, May 2, 2011

सांप का ज़हर पानी निकला

आज शाम 
ठीक ७:३० बजे 
निकला जब 
कालेज भवन से 
और चल रहा था 
खोये हुए मन से 
सहम कर रुक गया अचानक 
सड़क पर रेंगते हुए एक 
सांप को देखकर 
और वह भी 
डर गया था मेरे कदमों की आहट से 
अवश्य वह मुझसे पहले डरा होगा 
भई मैं आदमी जो हूँ 
मेरे रुकने पर वह भागने लगा 
पर आदमी से कौन बच सकता है भला ?
वहीं कुचल डाला मैंने उसे 
सोचा बड़ा ज़हरीला है 
किन्तु मेरे 
भय और क्रोध के आगे 
उस सांप का ज़हर पानी निकला /

तुम्हारी खुशियों की आज़ादी चाहता हूँ

तुम्हारी बेरुखी से 
शिकवा नहीं मुझे 
तुम्हारे मायूस चेहरे से
गमज़दा हूँ मैं /
कोई चाहत नहीं 
कि मिले मुझे 
तुम्हारी मुहब्बत में पनाह 
सिर्फ मैं 
तुम्हारी खुशियों की
आज़ादी चाहता हूँ 
गम की कैद से /

Thursday, April 21, 2011

ऐसा क्यों ?

खून हमेशा 
पानी से गाढ़ा होता है 
किन्तु खून आज बह रहा है 
पानी की तरह /

आज जो लौट कर आये 
इराक से 
अफगानिस्तान से 
भारत के दन्तेबाड़ा से 
गोधरा से ,सिंगूर और नंदीग्राम से 
उनके पैरों में 
खून के छींटे  देखी है मैंने 
लाल माटी देखी है हमने 
अपने ही देश में 
किन्तु --
जिन्होंने किया था लाल 
इस माटी को 
अपने ही नागरिकों के रक्त से 
उनके हाथों में 
आज सफेदी की चमकार है 
ऐसा क्यों?

Monday, April 18, 2011

बिखरने लगी है

संजोकर रखा था 
जो यादें तुम्हारी 
मैंने अपने दिल में 
वे भी अब बिखरने लगी है 
मेरी तरह 
बार -बार उन्हें 
फिर से समेटने की  कोशिश करता हूँ 
पर टूटा हुआ आदमी 
कहाँ समेट पाता है कुछ ?

Monday, April 11, 2011

घायल हुए हम और तुम

सिंगुर हो
या नंदीग्राम

या कहीं और 
कहीं नही लड़ी गई
तुम्हारी - हमारी लड़ाई
हर जगह
उन्होंने लड़ी
सिर्फ अपनी साख की लड़ाई
वोट की लड़ाई
घायल हुए
हम और तुम
और जीत हुई उनकी
क्या तुम इसे
अपनी लड़ाई मानते हो
अपनी जीत मानते हो ?
चुनावों के बाद
दिखेगा इनका असली चेहरा
वे फिर पैंतरा बदलेंगे
हमें फिर लड़ना पड़ेगा
अपनी जमीन के लिए

हमारे नाम पर लड़ी गई
हर लड़ाई 

उनकी खुद की ज़मीन 
बचाने की लड़ाई थी 
और --
हर लड़ाई में 
उनकी जमीन बनती गई 
और हम ज़मीन हारते गए 
हम वहीं रह गये 
जहाँ से शुरू किया था हमने यह जंग 

बानर कब गिने गये 
योद्धाओं में 
लंका की लड़ाई में 
जीत तो केवल राम की हुई //

लिची का पेड़

लिची का पेड़ 
फिर भर गया है फूलों से 
रानी मधुमक्खी आ गई है 
अपनी सेना के साथ 
उनका रस चूसने
और सुंदरवन से 
आ गये हैं
मधु के व्यापारी 
लिची के पेड़ का 
दर-दाम करने 
किन्तु --
मासीमाँ ने मना कर दिया 
इस बार पेड़ बेचने से 
यह कहकर कि--
"आमादेर बडो खोका असछे एबार गरोमेर छुटीते" *
लिची जब पकेगा 
पूरा पेड़ लाल हो उठेगा 
रस भरी  लिचिओं के गुच्छों से //

*( हमारा बड़ा लड़का आ रहा है इसबार गर्मियों में )

Saturday, April 9, 2011

धोती

मुझे याद है आज भी 
मेरे बाबा धोती पहनते थे 
और हर रोज 
माँ धो देती थी 
बाबा की धोती 
घर के पीछे के 
पोखर के घाट पर बैठ कर
बाबा के मृत्यु के 
तीस साल बाद 
अब कोई धोती नही पहनता
मेरे गाँव में 
गाँव भी अब 
गाँव कहाँ रहा 
शहर की तरह 
बहुराष्ट्रीय कम्पनिओं का 
प्रवेश हो चुका है 
मेरे गाँव में 
अब मेरे गाँव में 
सब जींस पहनते हैं 
मास्टर जी भी 
मैंने पूछा था उन्हें 
धोती छोड़ कर जींस 
पहनने का कारण
मास्टर जी ने कहा था --
यही तो फैशन है आज का
और --
धोती पहनना 
अब उन्हें असहज लगता है 
धोने में भी परेशानी होती है 
क्योंकि तालाब अब सूखने लगे हैं 
और गाँव में भी अब 
पानी की कमी है 
गाँधी जी 
राजेन्द्र बाबू
शास्त्री जी 
और मेरे बाबा 
धोती पहने खड़े हैं 
अपनी -अपनी तस्वीरों में 
कभी यही धोती 
मेरे गाँव -मेरे देश की 
पहचान थी //

Thursday, April 7, 2011

विचलित नहीं हूँ मैं

इन काले बादलों के पीछे 
जो नीला आकाश है 
वह मेरा है 
जरा भी 
विचलित नहीं हूँ मैं 
इन काली घटाओं की भीड़ से 
हवा के एक झोंके की  
प्रतीक्षा है  मुझे .

काश पहले घटी होती यह घटना

हैरानी अब इस बात पर है 
कि तुम्हें सताने लगी हैं 
मेरी परेशानियाँ 
काश पहले घटी होती यह घटना 
तो --
शायद मैं इतना 
परेशान न होता आज इतना 
अब आलम यह है 
कि मैं कह नहीं सकता तुम्हे 
कि तुम --
मत हो परेशान इतना 
मेरी परेशानियों से 
क्योंकि --
अब यह परेशानियाँ 
सिर्फ मेरी है .//

Tuesday, March 29, 2011

अँधेरे में


गहराई रात की 
अँधेरे में 
टिमटिमाते तारों को देखता हूँ 
और याद करता हूँ 
काल कोठरी में कैद 
'दाराशिकोह ' को 
'नजरुल ' को 
भगत सिंह  और राजगुरु को 
और मेरे युग के 
विनायक सेन को 
कहीं किसी उपवन में 
गा रहा है 
नज़रुल का बुलबुल 
विरह गीत 
तभी एका - एक 
बड़ी -बड़ी आँखों के पीछे से 
विद्रोही कवि का 
 प्रेमी हलकी मुस्कान लिए 
खड़े हैं --
फिर विरक्त होकर 
उठा लेते हैं
 रणभेरी  अपने हाथों में 
मैं बतियाने लगता हूँ 
कि--
हे महाप्राण 
मैं आपके साथ जाना चाहता हूँ 
युद्ध के मैदान पर 
फिर सुनने लगता हूँ 
बहादुरशाह जफ़र की ग़ज़ल 
" जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ ......."
दूर शान्तिनिकेतन से 
गुरुदेव कह रहें हैं -
'जोदि तोर डाक सुने केऊ ना आसे, तबे  एकला चलो रे '
और फिर  वेदना भरे दिल से 
बुदबुदाते हैं गाँधी जी -
हे राम -हे राम 
एक असहाय भक्त की तरह //

Thursday, March 10, 2011

मेरी किताबें

दस वाई  दस के कमरे में 
किताबों से भरी हुई रैक 
दिन भर --
किताबें रहती हैं खामोश 
और मैं बोलता रहता हूं उनसे

रात के सन्नाटे में 
जब मैं खामोश रहता हूँ 
मेरी किताबें 
बातें करती है मुझसे .
और सुनाती है  कहानी 
अपने सीने में कैद 
महान हस्तियों की /

तुम्हे मालूम है

तुम्हारी आँख का एक बूंद आंसू
गहरा सागर है
मेरे लिए
और तुम्हे मालूम है
मुझे डुबने से डर लगता है
क्योंकि मुझे --
तैरना नही आता /

Friday, March 4, 2011

......मैंने मांग ली

आज फिर टूट कर गिरा 
एक सितारा जमीं पर 
कुछ ने ---
देखकर उसे मांग ली  कुछ मन्नतें 
और ---
मैंने मांग ली 
उस गिरते सितारे की खैरियत .

Wednesday, February 23, 2011

घृणा



घृणा ' शब्द से
मेरा नाता मजबूत हुआ
जिस दिन
' सहानुभूति ' शब्द से
मेरा परिचय हुआ
क्योंकि --
सहानुभूति से अधिक
घातक शब्द नहीं पाया
मैंने --
अपने जीवन के शब्दकोष में /


प्रश्न चिह्न


 अमेरिका कहता है
मेरा देश
सर्वसम्पन्न है
और --
परोस देता है
अरबपतियों की एक लम्बी सूची
मेरे देश के सत्ताभोगियों के आगे
और मीडिया उसे
परोसती है
देशवासियों के लिए /

यदि मेरा देश
पूर्ण विकसित है
तो किसके झोपड़ी में जाता है
रात बीताने का नाटक करने के लिए
कांग्रेस का युवराज ?

फिर क्यों रोज लगाता है फांसी
भारत का किसान ?
क्यों एक मासूम चेहरा झांकता है
चमकते शीशों वाली गाड़ी के भीतर
क्या यह --
षड्यंत्र नही है
हमें भटकने का ?

अमेरिका के इस सर्वसम्पन्न
और पूर्ण विकसित भारत में
क्यों उठ रही है
रोज़ एक नए राज्य की गठन की मांग
क्यों युवा अपना रहे हैं
नक्सलवाद ?
टाटा ,अम्बानी और बिरला
क्या यही भारत है ?

वेदना




अपनी वेदना  को                       
 मैं शब्दों में
व्यक्त नही कर सकता
मेरी वेदना केवल
'शब्द ' तक सीमित नही है
शब्दों से परें हैं
सागर से गहरी है
सागर एक शब्द तो नही /

मेरी वेदना की  तुलना
नही की जा सकती
पृथ्वी की किसी
विशालकाय वस्तु या प्राणी से
मेरी वेदना केवल
वेदना मात्र नही है
यह एक अंतहीन कहानी है
जिसे पिरोया नही जा सकता
किसी माला में
मेरी वेदना सिर्फ
मेरी  वेदना ही तो नही ?
 

Sunday, February 20, 2011

सारा दोष सागर का है

वो देखो फिर निकल पड़ी है औरतें 
कमर और सर पर लिए गागर 
पानी की तलाश में 
और दिल्ली में हो रही है बैठक
पेयजल समस्या पर 
और अफसरों के सामने रखा हुआ है 
सील बंध बोतलों में पानी 
बैठक के बाद
घोषणा हुई
सारा दोष सागर का है
सारा पानी खींच लेता है 
हमारी नदियों का 
और किसान डाल देता है 
अपने खेतों में 
और अब योजना आयोग के अधिकारियों ने 
निर्णय लिया है 
बैठक में 
चेरापूंजी में भी अब 
तालाब खुदवाये जायेंगे 
अगली पंचवर्षीय योजना के तहत .//

Thursday, February 17, 2011

और मुझे याद आये खुदीराम बोस

खुदीराम बोस
आज फिर याद आये मुझे 
खबर पढकर कि--
आज एक किसान ने फिर लगा ली फांसी/

मैंने दिल्ली में यह सूचना भेजी कि 
फिर एक किसान ने 
लगा ली है फांसी 
और मुझे याद आये खुदीराम बोस 
सूचना पढकर 
वे हंसे-
रावण की हंसी 
फिर व्यंग किया -
किसान और खुदीराम ?
संसद मार्ग पर खड़े 
रावणों का चेहरा सोचने लगा मैं 
सहसा अपनी भूल का अहसास हुआ 
क्यों भेजी मैंने 
यह सूचना दिल्ली की लंका में 
रावणों के इस दल में 
कोई विभीषण  भी तो नहीं आज 
पता चल गया मुझे 
क्यों चले गए 
शरतचंद्र  और प्रेमचंद //

Wednesday, February 9, 2011

हार चुका है वृक्षों का दल

देवता लुप्त हैं
क्रूर मानव शेष हैं
विकृत पशुत्व्य बचा है /
तलवार खेलने के लिए बचे हैं अब
और
ढाल बंध  चुका है पीठ पर
बंदूक की गोली बिखरी पड़ी है हथेली पर
पांव पसार चुका है षड्यंत
और
भोजन में मिल चुका है विष
जीवन आज  विध्वंस है
और सारा वन उजड़ चुका है /
खाल, मांस .दांत नाक
सब छीन चुका है
पृथ्वी के बाज़ार में
ऊँचे दाम में
बेच कर लौटे हैं
क्या अपराध किया है
कि--
उनका हाथ निहत्या है आज ?

खो रहा है जीवन
और --
बन्धुत्व्य
नदी स्रोत खो चुकी है
हार चुका है वृक्षों का दल
फूल -पंछी -वायु -मेघ
घास -लता वनभूमि
और बहुत कुछ
हे -पृथ्वी तुम भी तो बन रहे हो मरुभूमि
कौन बचाएगा तुम्हें ?

Wednesday, February 2, 2011

बागबाहरा के चार दिन

वर्ष दो हजार ग्यारह
अट्ठाईस से इकतीस जनवरी तक
मेरा पड़ाव था बागबाहरा
यहाँ एक घर है
इस घर में छतीस जन हैं
बागबाहरा का यह घर
लगा मुझे और उन्हें
जैसे बागों में बहार हो
देवताओं का आमंत्रण हो
अपने भक्तों को /

लगा मुझे जैसे
यहीं से हुआ था श्री गणेश
अतिथि देवो भवो /

बागबाहरा के  छत्तीस जनों वाले इस घर में
पहले -पहल
मेरे इस प्रवास के अनुभव को
मैंने कहा--
गूंगे का मीठा आम
राजमार्ग से सटा हुआ
खेत - खलियान से जुड़ा हुआ
यह घर जिसके सामने
आलीशान देवालय भी
क्षीण लगा मुझे /

चहकते - कूदते
चलते -फिरते
हर कोई
देव दूत लगा मुझे
आदर -सत्कार
सेवा भाव , सुसंस्कृत से
अलंकृत
इस घर का प्रत्येक सदस्य /

बच्चा, बुजुर्ग
क्या कुछ नही सिखाया मुझे?
इस प्रवास के बाद
अब किसी मंदिर की तलाश नही मुझे
किउंकि --
देवकी -वासुदेव
यशोदा और नन्द
और मिले --
रजत कृष्ण मुझे
बागबाहरा के इस घर में /


Tuesday, February 1, 2011

यह है दुर्भाग्य कि---

राहुल आये संगमा आई
सुले आई
खाली टोकरा सर पर उठाकर
गावं में जाकर रात बीताये
भारत के यह नए भाग्य बिधाता
सुबह उठ कर फोटो खिचाये
युवराज बनकर घुमते हैं
गाड़ी का धुआं छोड़ते हैं
 देश के नए भाग्य  विधाता
देश का भ्रमण सिर्फ करते हैं
यह है दुर्भाग्य कि----
लोग इन्हें देखने को मरते हैं 

Wednesday, January 19, 2011

आदमी के नजरों का इंतेज़ार होता होगा शायद

आज फुर्सत से फिर
चाँद को देखा मैंने
शहर के एक पार्क में बैठे हुए
गोल चाँद की मनभावन मुस्कराहट
बिखर रही थी
पार्क के वृक्षों और लताओं पर
आकाश का चाँद आज खुश था --
कि मैं उसे देख रहा हूं
और मैं खुश था  सोच यह
कि  वो मुझे देख रहा है --
बैठे हुए इस महानगर के  एक निर्जन पार्क में .

चाँद जान चुका है आज , कि
शहरी लोगों के पास
समय नही है उसे देखने की
आफिस , शापिंग -डिस्को से फुर्सत कहाँ है  किसी के पास
चाँद को देखने की
वे तो टी . वी . पर चाँद देखते हैं
यों भी  चादनी अब
धुंधली सी गई है
प्रदूषण और एडिसन के अविष्कार के आगे
जो थोड़ा वक्त बचता है
उसे टी . वी . खा लेता है
छत पर चड़ने की  हिम्मत कहाँ बचती है अब
और  बिजली गुम होने पर
गगनचुम्भी इमारतों के घने जंगल में घिरा रहता है आदमी
इस शहरी आदमी के नसीब का पता नही मुझको
किन्तु चाँद को आज
आदमी के नजरों का इंतेज़ार होता होगा शायद .

Thursday, January 13, 2011

अभिव्यक्ति का स्वर

बंदूक ,गोली
तोप, बम्ब
बन गए हैं ---
विकास के स्तम्भ /

छोटे होते तन के कपड़े
सास बहू के घर के झगड़े , को
मीडिया बना रही --
नारी मुक्ति  और अभिव्यक्ति  का स्वर /

नोट के बदले वोट ले- लो
डालर के बदले देश ले -लो
फिर भी वतन प्यारा
बन चुका है नेता जी  का नारा /

अनुभव पक रहा है

जहर मिला मुझे
दवा के नाम पर
बेवफाई मिली मुझे
प्रीत के नाम पर
क्षीण हो गया है
जीवन का कोलाहल
जीवन अब बन चुका है
केवल एक हलाहल /

पिस रहा है  जीवन
दिन प्रतिदिन
घुन की तरह
जल रहा है जीवन यहाँ
मई- जून की धूप की तरह
अनुभव पक रहा है
टांट पर बचे हुए
बाल की तरह /

Tuesday, January 11, 2011

नव वर्ष का पार्लियामेंट सांग-

आओ खेले
चोर -चोर
देश में  फैलाये  अँधेरा
घन घोर
करने दो जनता को शोर
विपक्ष को लगाने दो पूरा जोर
आओ खेलें  हम चोर - चोर .//

Sunday, January 9, 2011

किसानों की बलि

आई. पी .एल में लग रही है
खिलाडियों की करोड़ों में बोली
सुखे - डुबे खेतों में हो रही है 
 किसानों की बलि.
टू जी में उलझा दिया 
प्याज में आग लगा दिया 
आदर्श का भी  अपमान किया 
अब बल्ला - गेंद बचा है 
चुन लो क्या खायोगे .

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...