Saturday, December 25, 2010

सूरज को सोचता हूं

अब कभी -कभी  मैं 
सूरज को सोचता हूं 
उसके अकेलेपन को सोचता हूं 
उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं 
कैसे सह रहा है वह 
इस जलन को सदियों से 
ख़ामोशी से ?
निथर हो कर 
मैं यह सोचता हूं .

Thursday, December 23, 2010

एक काले गुलाम की याद ताज़ा करते हैं वे

जिंदा नही हैं वे
फिर भी जी रहे हैं
मशीनी मानव की तरह
और जाग रहे हैं रात भर
उल्लू की तरह
अमेरिकी दलाल बास की
इशारों पर सिर हिलाते हुए /
एक काले गुलाम की याद  ताज़ा करते हैं वे
अपमान सहकर  भी
खुश होने का नाटक करते हैं
क्या मैं इन्हें --
मन और चेतना से जीवित मान लूं ?
जानवरों को भी देखा है मैंने
विद्रोह करते --
अन्याय के विरुद्ध
क्या आज का मानव
सच में मजबूर है
एक कैद जानवर से ज्यादा ?

Wednesday, December 8, 2010

नेताजी के काक

जो लिप्त हैं अपराधों  से
बन बैठे हैं बाबा
पूरे देश में चल रही है
इन्ही बाबाओं की हवा

जिस जंगल में रहते हो
लकड़ी - महुया बीनते हो
अब बिनेगे खाक
किउंकि --
तुम्हारे जंगल  पर मंडरा रहे हैं
नेताजी के काक
इसीलिए अब तो
मत रहो अवाक्

जंगल तुमसे ले लेंगे
एक कागज़ पर
आरक्षण तुम्हें दे - देंगे
जंगल में क्या करोगे
भूखे पेट मरोगे

जल्दी - जल्दी  शहर में आओ
यहाँ आकर भीड़ बढाओ
ठेकेदार के सामने हाथ फैलाओ
भीख तुम्हें  वह दे देगा
इज्ज़त तुम्हारी लेलेगा
फिर नेता जी आयेंगे
संवेदना जताएंगे
आश्वासन देकर जायेंगे इंसाफ का
तुमसे वोट मांगेंगे
दे दिया तो टिकोगे
नही दिया तो पिटोगे
इसी तरह से मिटोगे ?

Thursday, December 2, 2010

रणभेरी अब बज चुकी है

सहमे -सहमे से  किउन है सब
स्तब्ध सब किउन है आज
गूंगे से अवाक् किउन है आज ?
गाज गिरी क्या  तुम पर आज
कैसे करोगे खुद पर नाज़
उठो , जागो फिर से आज
देखो आकाश में
मंडरा रहे बाज़
नज़रुल बुलाये
तुम्हें --
हाथ में लिए अग्निवीणा का साज़
रणभेरी अब बज चुकी है
देखो कबीर कह रहे हैं
कब तक सहोगे  इनका राज ?
देखो आगये बंदर
खुद को कह रहे सिकंदर
क्या यही लिखेंगे
हमारा मुकद्दर ?

Sunday, November 21, 2010

धूप पिघल रही है

धूप पिघल रही  है

और --

आदमी सूख रहा है जलकर 
...
राजा लूट रहा

मंत्री सो रहा है

वकील जाग रहे हैं

विपक्ष नाच रहा है

सड़क पर कुत्ते भौंक  रहे है

"मैं " नासमझ दर्शक की तरह

सब कुछ खामोश देख रहा हूं ?

Friday, November 12, 2010

चारमीनार जो खड़ा है

निज़ाम का शहर
हैदराबाद ---
बदल गया है समय के साथ
और --
चारमीनार जो खड़ा है
सदियों से  मूक
 एक  गवाह बनकर
इस बदलाव को
देख रहा है इस बदलते शहर के
तहज़ीब को
बड़ी बारीकी से
पुरानी सड़के अब चमकने लगी है
किन्तु  ----
अब भी दौड़ रहे हैं
नन्हे  नंगे पैर
उन सडको पर  दौड़ती हुई
गाड़ियों के पीछे
उन नंगे पैरों पर दौड़ते
बचपन को सरकार
कल का नागरिक कहती है
इधर लोग रोज़ देख रहे हैं
चारमीनार को
और सोच रहे हैं उसे एक
मूक - बहरा  मीनार मात्र
किन्तु --
इसी चार मीनार ने
देखी और सुनी है
हर बार  तमाम
भयंकर  चीखें .

Sunday, November 7, 2010

मेरे ख़त के जबाव में

मैंने लिखे उन्हें ख़त
 मिले उन्हें मेरे ख़त
किन्तु जबाव न आया  मेरे किसी ख़त का
मेरे ख़त के जबाव में
कोई ख़त न भेज कर
उन्होंने मेरे खतों का जबाव दिया
खामोश रहकर .

Tuesday, November 2, 2010

खाद्य मूल्य जब बढ रहे थे

जांच का आदेश दे दिया गया
किसी पर आंच न आने पाए
यह भी कह दिया गया .

खाद्य मूल्य जब बढ  रहे थे
बित्त मंत्री शेयर बाज़ार के आंकड़े  गिन रहे थे
कृषि मंत्री क्रिकेट के लिए  पैसे जुटा रहे थे
किसान खेतों में मर रहे थे .

आज़ाद भारत में

आज़ाद भारत में
घुम रहे हैं --
निर्भय होकर शैतान
चोहान -पवार - कलमाड़ी  जैसे
मार रहे मैदान .

भूख हड़ताल 
शुरू होगया
सुबह नाश्ते के बाद
समाप्त हो जायेगा यह
दोपहर भोजन के बाद .

अनाज सड़ रहा
गोदाम के बाहर
चूहों का हो गया राज
एफ. सी . आइ . के
अफसरों ने
यही किया महान काज .

अब ऐसा भी हो सकता है कि

अब ऐसा भी हो सकता है कि
कभी चाँद आये ज़मी पर
और कहे -
जल मत चड़ाओ अब मुझे
किउंकि अब तुम पड़ गए हो
मेरे जल के पीछे
किउन  इतना खर्च करते हो
मेरे जल के लिए
भेज रहे हो लोगों को
मुझ तक पानी की खोज के बहाने
जितना पैसा तुम खर्च करते हो
गरीबों को बाँट दो
किसानों को बाँट दो
वे भूख से मर रहे हैं
यदि मेरे घर में
पानी मिला
मैं खुद ही
वर्षा दूंगा धरती पर
कल तक पूजा करते थे
आज भरोसा तो करो कम से कम

Saturday, October 30, 2010

तुम बच निकलोगे किउंकि ---

बधाई हो
तुमने तुमने जीताये
अनेक स्वर्ण पदक
किन्तु मुझे याद है ---
उन पदकों को कंठहार करने से पहले
तुमने झुकाए थे अपना मस्तक  दुनियां के सामने

खेल थे राष्ट्र मंडल
तुमने किया अपना मंगल
बनाये तुमने नोटों का जंगल
जनता का क्या
थोड़ा शोर मचाएगी
फिर चुप हो जाएगी  थककर
जांच कैसी भी हो
तुम बच निकलोगे किउंकि ---
जांच दल के सदस्य तुम्हें जानते हैं
और जानते हैं तुम्हारी पंहुच कहाँ तक है.

यह जाँच वैसी होगी
अब तक जैसे होती आई
तब तक चलेगी
जब तक जनता भूल नही जाती या --
कोई नया घोटाला
सामने नही आता
तब इसे छोड़ कर उसकी जाँच होगी .

आधुनिक दिवाली

दिवाली के मिठाइयों
अब मिलने लगा है  रंग
सब जानते हैं  फिर भी कोई होता नही दंग
खाकर वही  मिठाइयाँ
हो जाते सब मग्न

मिलावटी घी / तेल से
जलते हैं अब दीये
रात निकलकर देखो सब रहते हैं पिये

बच्चों का हाथ अब पहुँचता नही
बड़ों से चरणों तक
रुक जाता है आकर घुटनों तक

पंडित पड़ता नही मन्त्र
उनका काम करता है
सी . डी . प्लयेर नामक यंत्र
यही है त्योहार मानाने का आधुनिक तंत्र .

भारतीय किसान को सरकार का अभिशाप

जब तक तुम जियोगे
दाने - दाने को तरसोगे
समझे किसान ?
तुम्हे क्या लगता है
अंग्रेज़ यहाँ से चले गए
वे अब भी मौजूद हैं
हमारी व्यवस्था में
क्या तुम्हें अहसास नही होता
उनके होने का
दलाल नेताओं के व्यवहार से ?

Thursday, October 21, 2010

सब कुछ आम

इस देश में
सब कुछ आम
आदमी आम
लूट आम
भ्रष्ट्राचार आम 

केंद्र छोड़कर भागे वाम

विपक्षी कर रहे राम - राम 

कलमाड़ी खा रहा खुले आम - 

सरे आम
कांग्रेस कहती
मत लो नाम
गाँधी जी कहे हे राम.

Saturday, October 2, 2010

--तुम्हारा कृषि मंत्री

किसान तुम फसल उगाओ

हम उसे बेचेंगे

मुनाफा कमाएंगे

हवाई यात्रा करेंगे

बच्चों को घुमायेंगे

चिंता मत करो

तुम्हे -

कर्जा हम दिलवायेंगे

तुम सिर्फ व्याज भरते रहना

जीवनभर यूँ ही मरते रहना

अपना काम करते रहना

हमारा क्रिकेट देखते रहना

किन्तु एक काम करना

हमसे कभी

रोटी मत मांगना

--तुम्हारा कृषि मंत्री

जिधर देखो लहू के प्यासे

सफेद पोशाक का चोला ओड़ कर
शैतान घुमे हैं आंगन में
अशुर भी आज शर्मसार है
इन्सान की ऐसी हरकतों से
जिधर देखो लहू के प्यासे

...लम्बी तिलक
लम्बी दाड़ी
सिर पर टोपी और
कुछ अस्त्रधारी

बेरोजगार सब घुमने वाले
पड़ गए हैं इनके पाले
कौन जाने इनके मन के जाले
न राम जाने न रहीम जाने
किसी का कहना कभी न माने
अब क्या हो ऊपरवाला जाने

सावधान रहना इनसे
मुंह मत लगना इनके
यह कब हुए किसी के ?

Monday, September 27, 2010

जैसे मिलते हैं -

कहीं कभी किसी दिन
हम दोनों मिल जाएं
जीवन के किसी राह पर
तब क्या हम
मिल पायेंगे
ठीक पहले की तरह ?
अक्सर मेरे मन में
यह सवाल उठता है
उस वक्त
शायद हम याद करेंगे
उस पल को
जब हम बिछड़े थे
एक - दुसरे से

मिलन से भी कठिन होगा
मिलन को यादगार बनाना
मन में उठे सवालों का
तब हम जवाब खोजेंगे
और
खोजेंगे कुछ शब्द
एक -दुजे को संबोधित करने के लिए
और सोचेंगे यह कि
कौन था जिम्मेदार
हमारे बिछड़ने का
ताकते रहेंगे एक -दुसरे का चेहरा
कुछ छ्णों तक
शर्म भरी आँखों से
देखेंगे
एक - दुसरे  कि आँखों में
और शायद -
बनावटी खुशी की एक चादर
ओड़ने का प्रयास करेंगे
अपने चहरों पर
फिर से
एक औपचारिक मिलन बन जायेगा
यह मिलन
जैसे मिलते हैं -
दो अजनबी कभी - कभी
किसी सुनसान सड़क पर .

Wednesday, September 22, 2010

बह रहे हैं उन्मुक्त होकर

घर के सामने एक  गड्ढा
गड्ढे में भरा है  बारिश का पानी
उस जमे हुए पानी में
बच्चे बहा रहे हैं
कागज़ के नाव
नाविक रहित  नाव
बह रहे हैं
उन्मुक्त होकर जमें हुए पानी में
हल्की ठंडी हवा के झोकों के साथ .

बारिश की बूंदों को देखता रहा

झम झम गिरते
बारिश  की बूंदों को देखता रहा
उनके कदम तालों को
मग्न होकर सुनता रहा
कभी रवि ठाकुर को
कभी बाबा की पंक्तियों को
याद करता रहा
"जल पड़े
पाता नड़े " या
धिन- धिन -धा"
वाह रे  काली  घटा
तान सेन ने ली होगी
कभी तुम्ही से संगीत की शिक्षा
हे बारिश के बूँद
हे मेघ दूत
तुम्ही से मिली थी शायद
कालीदास को  प्रेरणा ..

Thursday, September 16, 2010

मेरी ऐसी औकात कहाँ

मेरी ऐसी औकात कहाँ

कि मैं बनायुं मंदिर तुम्हारा

मुझमे ऐसी ताकत कहाँ कि

मैं तोडू मस्जिद तुम्हारा

मैं भक्त गरीब तुम्हारा

मैं बंदा फकीर तुम्हारा

अपना घर मैं अब तक बना न पाया

कैसे जलाऊँ बस्ती

भूख की आग पेट में जल रही

मैं कैसे करूं मस्ती ?

तुम्हारे मंदिर - मस्जिद

पर मैं कुछ कहूं

मेरी कहाँ है ऐसी हस्ती ?

छोड़ दिया है

यह काम उनपर

जिनके लिए है मानव जीवन सस्ती

जो आपने सोचा न था

कर रहे हैं बन्दे

इतनी मुझमें हिम्मत कहाँ

कि कह दूं इन्हें मैं गंदे

यदि कहीं है

अस्तित्व तुम्हारा

मेरे लिए समान है

कैसे तुमने यह होने दिया

जब तुम्हारे हाथों  में कमान हैं ?

कबीर को अब कहाँ से लाऊं

रहीम को मैं कैसे बुलाऊँ

नानक को यह भूल गये हैं

साधु- मौलबी बन गए हैं

कैसे इन्हें मैं समझाऊँ ?

तुम्हारे और इनके बीच अब

बढ गए हैं फासले

इसीलिए

बढ गए हैं इनके नापाक हौसले .

Monday, September 13, 2010

तुम भी दूरी मापती होगी

हम दोनों की आखरी दिवाली पर
तुमने दिया था जो घड़ी मुझे
आज भी बंधता हूं उसे
मैं अपनी कलाई पर
घड़ी - घड़ी  समय को देखने के लिए

उस घड़ी में
समय रुका नही कभी
एक पल के लिए
तुम्हारे जाने के बाद भी
निरंतर चलती रही
वह घड़ी
समय के साथ अपनी सुइओं को मिलाते हुए
घड़ी की सुइओं को देखकर
मैंने भी किया प्रयास कई बार
उस समय से बाहर निकलने की
जहाँ तुमने छोड़ा था मुझे  अकेला
समय के साथ
किन्तु सिर्फ समय निकलता गया
और
मैं रुका ही रह गया
वहीँ पर
निकल न पाया
वहां से अब तक
जहाँ छोड़ा था तुमने
मुझे नही पता तुम्हारे घड़ी के बारे में
क्या वह भी चल रही है
तुम्हारे साथ
तुम्हारी तरह ?
कितनी दूर निकल गई हो
कभी देखा है
पीछे मुड़कर ?
जनता हूं
आगे निकलने की  चाह रखने वाले
कभी मुड़कर नही देखते पीछे
पर मुझे लगता है
कभी -कभी अकेले में
तुम भी दूरी मापती होगी
हम दोनों के बीच की .

Tuesday, September 7, 2010

बदलाव के इस दौर में

समय के साथ
सब कुछ बदला है
आदमी भी
और उसका समाज भी
त्योहारों का स्वरुप भी
ईंट - पत्थरों के बढते
घने जंगल में
चमकती दुधिया रौशनी में
खो गई है चांदनी
तरसने लगी है
जमीं तक पहुँचने के लिए
सरकार के नोटिस पर
जुगनुओं ने  छोड़ दिया है जंगल कबका
उद्योगपतियों के
विशेष आर्थिक ज़ोन के लिए
इस बदलाव के
अंधी दौर में
बाल मजदूरी करते - करते
खो गया है  बचपन भी कहीं .

जनपदों पर अब

भारत के गलियों में
आजकल
त्रिलोचन नही दिखते
आजकल वे कवितायेँ नही लिखते
जनपदों पर अब
नागार्जुन नही दिखते
क्या इन महान कवियों ने
भांप लिया था समय को
समय से पहले ?
शायद उन्हें ज्ञात हो गया था
आने वाला कल
बस्ती की गली में जो चाय की दुकान थी
उसपर अब चाय नही मिलती
मिलती है
विदेशी शीतल पेय पदार्थ
महानगरों के भीड़ में
अब जनमानस नही दिखता
मुझे देहाती दिखते हैं
भारतीय नही दिखता
क्या मेरी नज़र खो गयी है ?
क्या जनपदों के कवि
सच में लुप्त हो गए हैं
या ----
लुप्त करने की एक साजिस में
उन्हें कैद कर दिया गया है
अलमारी के घुन लगी पुस्तकों में ?

Sunday, September 5, 2010

क्रिकेट खेलना सीखो

देवता आये धरती पर
पूछा भारत के किसान से
क्या करते हो ?
जवाब दिया किसान ने - किसानी
देवता क्रोधित हो गए
श्राप दिया किसान को
जबतक जीएगा
इस देश में
दाने- दाने को तरसेगा
इस देश में
देवता कुछ विनम्र हुए
पूछा - क्या तुम्हे लगता है अंग्रेज यहाँ से चले गए ?
किसान हैरान था
देवता ने उत्तर दिया -
वे अब भी  उपस्थित है -
तुम्हारी देश की हर व्यवस्था में
क्या तुम्हे कभी अहसास नही होता
तुम्हारे देश के नेतायों के व्यवहार से ?
अब देवता हैरान थे
देवता को तरस आया किसान पर
उन्होंने सलाह दिया किसान को
देखो -
तुम किसानी छोड़ो
क्रिकेट खेलना सीखो
आई .पी. एल.  में जाने का प्रयास करो
अपने खेतों को मैदान बनाओ
प्रतिदिन अभ्यास करो
क्या पता कोई उद्योगपति या सिनेसितारा
तुम्हे भी भाड़े पर उठा  लें
अपनी टीम के लिए
कहकर देवता चले गये
किसान नींद से जाग उठा
उसका सपना टूट गया
खेत की ओर भागने लगा .

तुम जलाओ बैंगन

उनका भत्ता   बढ गया है
तुम जलाओ बैंगन
काम तुम्हारा करते हैं
संसद में ये लोग लड़ते हैं
माइक,जूता - चप्पल  एक -दुसरे पर फेंकते  हैं
हवाई सर्वेक्षण करते हैं
और क्या तुम चाहते हो
तुम तो केवल पत्थर तोड़ते हो
ठेला चलाते और बोझा ढोते हो
हमेशा  महंगाई का रोना रोते हो
उनके बारे में कभी सोचते हो ?
हवाला कांड
चारा कांड
कफ़न कांड , बोफोर्स कांड
हत्याकांड , दंगा कांड
और न  जाने-
क्या -क्या  महाकांड
कितनी बखूबी करते हैं
सी . बी . आई . वाले भी
इनसे डरते हैं
इन्ही का कहा मानते हैं
अरे नादाँ  गरीब जनता
क्या तुम्हे नही पता
ये वही लोग हैं जो -
दिल्ली में रहते हैं
पटना में रहते हैं
पुरे देश में रहते हैं
खूब मस्ती करते हैं
"मेरा पोता करेगा राज"
बाबा नागार्जुन की यह कविता रोज पढते हैं
नोट के बदले वोट देते हैं
स्टिंग आपरेशन में पकड़े गए तो
पत्रकार को खरीदते हैं .
जरा सोचो -
वे भी गरीब हैं
तभी सरकार इन्हें सबकुछ
मुफ्त में देती है
इस महंगाई में  भी
इनके बच्चे बिदेशों में पढते हैं
इस महंगाई का   तो
उनपर भी है बोझ
तुमने उन्हें क्या दिया
मतदान केंद्र में जाकर सिर्फ  एक बटन दबाया
तुम तो काम वाले हो
वे तो  बेरोजगार हैं
काम के चक्कर में बिचारे
दिल्ली के  जनपथ पर  घुमते हैं मारा - मारा
इनसे बड़ा कौन बेचारा ?
तुम जनता समझते नही
किउन उन्हें परेशान करते हो
कम से कम चुनाव तो आने दो .

Thursday, September 2, 2010

एक नन्हा बालक

एक नन्हा बालक

मिच- मिच कर हँसता है
मुझे देखकर छुपता है
फिर निकल आता है
और ठहाका लगता है
और उसे देखना
 मुझे अच्छा लगता है .

उसके माता - पिता जब
 उसे डांटते-
 उदास चेहरा बना लेता है
मेरे पंहुचने पर मुझसे लिपट जाता है
उसका चेहरा देख
मेरा मन उदास हो जाता है
उसे हँसते देख मुझमें 
नई ऊर्जा का सृजन होता है .

Tuesday, August 31, 2010

परमाणु

अणु - अणु से बना
आदमी अब -
परमाणु खायेगा
परमाणु देखेगा
परमाणु सोयेगा
भारतीय किसान  खेतों में अब  शायद 
परमाणु ही बोयेगा .

एक कार्बाइड  ने 
जलाया था भोपाल
एक ही रात में मर गए थे 
हजारों नन्हे गोपाल 
अब परमाणु की बारी है 
अब भोपाल नही 
सिर्फ गोपाल नही 
शायद जलेगा सारा देश 
किसकी मज़ाल,
किसकी औकात 
कौन करेगा 
इन व्यापारिओं पर केस ?

किसे याद है 
हिरोशिमा - नागासाकी  के 
वे मौत के भयानक  चित्रों   का 
कौन समझाए इन्हें 
गहरी साजिस 
इन व्यापारी मित्रों का ?.

लेकर घुसे पिज्जा 
बनना चाहते हैं जीजा 
पेप्सी - कोक का ज़हर  बनाकर 
कहते हैं -
ठंडा समझ कर पी-जा . 

मोह लिया है "मन"
मोहन का 
कितना अच्छा उपाय  खोजा  है
भारतीयों के दोहन का .

बांसुरी नही आज
मोहन के पास
मन में बजता है  सीटी
एकदम से रुक जायेगा  
जब आयेगा सीटीबीटी.



Sunday, August 29, 2010

पुण्य कैसे मिलेगा

यही एक सवाल
आता है दिल में , कि
पुण्य कैसे मिलेगा ?
क्या सिर्फ -
माता - पिता की सेवा से
या फिर -
तीर्थों की यात्रा भर से ?
अपने कर्मों को
सही दिशा देने से
क्या नही मिलता है पुण्य किसी को ?
क्या सही - क्या गलत
कैसे करूँ मुल्यांकन
क्या सिर्फ
बेचना और बिकना ही सत्य है आज ?
या फिर
सत्य आज भी बचा है
सत्य बनकर हमारे बीच ?
क्या पुण्य उस सत्य  को स्वीकार करने से मिलता है
जिस झूट को सच बनाकर  परोसा जाता है ?
मन नही मानता
इस सार्वजनिक झूठी सच को
क्या कोई  बता सकता है
आधुनिक सत्य का चित्र
कहाँ मिलेगा मुझे ?
या सत्य भी आज बिक चुका है
आदमी की तरह /

राजा के दरवार में रहकर
राजा की आलोचना करना
पाप है या पुण्य ?
मैंने किया है इसे कई  बार
यह कला मैंने विदुर  से सीखी है .
क्या मुझे मिलेगा इस युग में
किसी नर- नारायण का साथ ?
या -
नारायण भी बिक  गए आज कौरवों के हाथ  ?
न मैं मीरा
न मैं सुकरात
विषपान नही करूंगा
पुण्य मिले
या न मिले
मैं ऐसे ही जीऊंगा.

Thursday, August 26, 2010

तीन छोटी कवितायेँ

एक
रेडियो पर लव गुरु
और --
टीवी पर बाबा
अपनी -अपनी दुकान खोलकर
कान और नाक पकड़ कर
निकल रहे हैं लोगों की हवा .
रेडियो लव गुरु अध्यापन  नही करता
सिखाता है लव
सोचता हूं जनता को
अक्ल आयेगी कब ?
लवगुरु के बातों का फंदा
कर देता है प्यार ठंडा
इसी को कहते हैं ---
चालाक बंदा
प्रेम क्या रेडियो की चीज़ है ?
किउन करते हो नीलाम
जब तुम में प्रेम नही बसता
लव गुरु किस काम ?
प्रेम यदि सीखना है
तो जानो --
मीरा - कबीर को
प्रेम आप- ही बहेगा
दिल से मिटा दो जो नफरत को  /
______________________
दो

भारत के समाचार चैनेलो पर
दिखते हैं  अब भूत
और -
संवाददाता घुमते हैं
बनकर उनके दूत .
__________________

तीन

सब बन रहे हैं बाबा
तुम भी हो जाओ बाबा
पायोगे लोगों की झूठी  वाह - वाह
तुम भी बन जाओ गुरु
कर लो नया व्यापार शुरू
नाम तुम्हारा क्या है ?
आशा या निराशा
देव ,देवा या कोई अंशु हो नाम के पीछे
आसन बिछाकर बैठ जाओ
ऊपर हो या नीचे
बस तुम एक काम करना
महाराज या राम जोड़ना
अपने नाम के आगे .







Wednesday, August 25, 2010

इस पानी को हल्का मत समझो

जिस पानी को तुम समझ रहे हो
आज हल्का
इसी पानी ने स्वयं
तोड़कर चट्टानों  को  बनाया अपना रास्ता
और मैदानों में जाकर दिखाया
अपना भव्य रूप .
यह वही पानी है
जिसने शायद -
उजाड़ा  था हड़प्पा - मोहंजोदारो  को
और शायद -
दौड़ती है रक्त बन कर हमारी नशों में
और गंगा - कावेरी - गोदावरी के रूप में
हमारी संस्कृति में .
यह वही पानी है
जो -
द्रव रूप में संचित है पुष्प कलश में
यह वही पानी है
जो-
निकला  था शिव की जटा से
और -
सीता और द्रौपदी की नैनों से अश्क बनकर
और बना था काल कारण
रावण और कौरवों का .

मत  उसकाओ  इसे 'सैलाब' के लिए
नीलगगन के आंगन  में उड़ते
बादलों को हल्का मत समझो
कहर बन कर गिरा था यह
लेह- लद्दाख में.
इसके विशाल स्वरुप को देखो जाकर-
प्रशांत- हिंद महासागर में
इसकी सभ्यता की निशां
आज भी बाकि है
नील- सिधु के किनारे .

बांध बनाकर रोकोगे
इसे कबतक ?
सब तोड़ कर बह जायेगा
सुनामी बनकर आयेगा
सब कुछ  बहा ले जायेगा .

Sunday, August 22, 2010

किस काम का यह आदमी ?

चारो ओर आदमी
सिर्फ आदमी -ही- आदमी
किस काम का यह आदमी ?

रोता आदमी
हँसता आदमी
उन्माद आदमी
सिर्फ आदमी -ही - आदमी
किस काम का यह आदमी

डरा हुआ आदमी
टूटा हुआ आदमी
बेकार -बेरोजगार आदमी
किस काम का यह आदमी

क्रूर आदमी
भयानक आदमी
यांत्रिक आदमी
तांत्रिक आदमी
किस काम का यह आदमी

भ्रष्ट आदमी
नष्ट आदमी
लड़ता आदमी
लड़ाता आदमी 
जीता हुआ आदमी 
हारा हुआ आदमी 
मरता आदमी
बदनाम आदमी 
किस काम का यह आदमी ?

पैसा कमाता आदमी 
सोता हुआ आदमी 
ईर्ष्या से भरा हुआ आदमी 
किस काम का यह आदमी ?

बिकता आदमी 
बेचता आदमी 
बिका हुआ आदमी
व्यापारी आदमी 
किस काम का यह आदमी ?

भागता आदमी 
थका हुआ आदमी 
तपता आदमी 
जलता हुआ आदमी 
मुहं  के  बल पड़ा हुआ आदमी
पाला हुआ आदमी
किस काम का आदमी ?
हैरान आदमी
परेशान आदमी
किस काम का आदमी
मुझे म्याफ़ कर देना भाई आदमी .

Friday, August 6, 2010

नारी

'नारी' केवल
एक शरीर मात्र नही है
नारी केवल
एक 'शब्द' मात्र नही है
यह केवल एक उपदेश मात्र नही है.
शक्ति की उपासना
तो करते हो न ?
क्या सिर्फ
मिटटी की प्रतिमा ही पूजते हो ?
नारी से हट कर
शक्ति है कहीं ?
पुछ कर देखो 
दिलों - दिमाग से
क्या ज़बाव मिला ? नही .
देह से हटकर
आत्मा से जुड़कर
देखो उसे एकबार
माँ दिखी होगी तुम्हे
स्त्री दिखी होगी तुम्हे
इन्सान तो हो न ?
हैरान किउन हो -
नारी की बात पर
संसद में उसे
स्थान नही देना चाहते
घर में , मन में
कंही नही रखना चाहते
सिर्फ बिस्तर पर चाहते हो
स्तन से हटकर
मन तक जाओ
सिद्ध हुआ -
तुम पुरुष हो
आदमी हो केवल
हटाकर देखो
अपने ऊपर से यह लेवल
इन्सान हो
सिद्ध तो करो इस बात को .
 

Sunday, August 1, 2010

आज भी

नदियों का यह  देश 
भारत आज 
सूखा पड़ा है
शरतचंद्र  का "गफूर "
आज भी -
इस देश में भूखा पड़ा है .
उनका "महेश "
आज घुसता नही 
किसी के खेत के भीतर 
घुस गए हैं  सब महेश  आज
विदेशी कंपनियों के भीतर .


गाँधी जी के देश में
अब राज्य बचे हैं केवल
राम गायब हैं
 नेता जीवित हैं 
हाथों में लेकर -
नए राज्यों की मांग का लेवल .


"निराला जी " की 
इलाहबाद  की औरत
आज भी तोड़ रही है  "पत्त्थर "
उसकी हालत आज
पहले से भी ज्यादा  हो गयी  है  बदतर .


"मुंशी जी " का 'होरी '
अब -  नही चाहता 'गोदान'
वह चाहता है मिले उसे  आजाद भारत में 
दो वक़्त की "रोटी का वरदान "


बहुत रॉकेट भेजा तुमने 
अबतक चाँद पर 
लेन उसका पानी  ज़मीन पर 
दयाहीन होकर 
किसान मर रहे हैं यहाँ 
भूमिहीन होकर .


केदारनाथ जी  का 'मजदूर '
आज भी -
जल रहा है , तप रहा है 
और -
दानियों का यह देश  आज 
 हाथ फैलाये  भाग रहा है .

Sunday, July 4, 2010

उनके कलम सूख गये थे .

बड़ी -बड़ी  कम्पनिओं का
आज देश में भरमार है
फिर भी लोग बेरोजगार है .

अनाज के गोदाम
भरे पड़े है
फिर भी
गरीब भूखा पड़ा है

अदालत भी है
जज भी है
किन्तु न्याय कोसों दूर है

सेना भी , पुलिस भी है
फिर भी भय
दिल में बैठा है

गली का नल
सूखा पड़ा है
बोतल में कैद
जल बाज़ार में है .

विद्यालय आज
शापिंग माल है
शिक्षक आज
दुकानदार है

रवि की तरह
कवि भी आज
मौसम समझ कर
बाहर झांकता है

किसान यहाँ
मर रहे हैं
मंत्री जी
क्रिकेट  खेल रहे हैं
उदास नैनों से धरती -
आकाश की ओर
देख रही है
चुनाव से पहले
पत्रकार सब
पैसे लेकर  बिक गये थे
चर्चा नेताजी की करते - करते
उनके कलम  सूख गये थे .

Monday, June 28, 2010

बेवफा बादल

बेवफा बादल  

काले बादल
नभ पर छाये
नए उमंग
मन में जागे
किसान खेतों की और भागे
जंगल में भी मोर नाचे
वाह क्या बादल छाये /
पतझड़  तरु के
आस जागे
जिन्होंने वर्षा के वर मांगे
फिर जीने की चाह में
सूखा तिनका
उठ बैठा
बादल देख
वह खिल उठा
सुखे झरने नदियों ने
प्रिया मिलन सा श्रृंगार  किया
जल की रानी
तड़प उठी
उसमे नई उन्माद उठी /

ढोल नगाड़े
बज रहे
गावों में सब नाच रहे
श्रावण की आश में
मिठाइयाँ बाँट रहे
किन्तु -
मेघ बेवफा निकला
सबकी उम्मीद तोड़ कर निकला
जीवन की चाह जगाकर मन में
बादल भागा नेता की तरह ./

Sunday, June 13, 2010

खाली कैनवास पर

खाली कैनवास पर
यह उदास चेहरा किसका है
वह एक आम भारतीय है
गरीबीरेखा के नीचे वाला.

उसके पास  खड़ी है
सूखे झुर्रियों गालोंवाली
अस्सी बरस की उसकी माँ
और एक जवान बहन.

काम नही मिला उसे
किसी रोज़गार गारंटी में
नेता जी आये थे  एकदिन
उस दीन के झोपडी में
एक रात बिताया था
उस दलित के कुटिया में
नेताजी के साथ उसकी
तस्वीर भी छपी थी
अगले दिन के अख़बारों में
नेताजी ने कहा था -
तुम्हारा वोट बहुमूल्य है
मुझे मत-दान  करना
न समझ था बेचारा
जाकर मतदां केंद्र
दान कर आया
अब उसके पास सिर्फ
अख़बारों के टुकड़े , और
मंत्री जी का वादा शेष है .

जब सो जाता है सारा जहाँ

जब सो जाता है
सारा जहाँ
मैं जगता रहता हूं
अपनी तनहाइयों के साथ .

रात के सन्नाटे में
सुनने का प्रयास करता हूं
निशाचरों की आवाज़
मोहल्ले के चौकीदार की
लाठी की ठक-ठक
जब टकराती है
कानो में आकर
रात की बेवसी को सोचता हूं
सहानुभूति की दरकार नही मुझे
अपनी तनहाइयों में खुश हूं मैं
मेरे अपने--
अब बीते दिनो की बात है

झींगर की झिं - झिं
अब कानो को सुहानी सी लगती है
सन्नाटे को चीरती
रेल की छुक - छुक
बेचैन नही करती मुझे
रातों को जागना अब मुझे अच्छा लगता है .
रात की भी अपनी
सीमा है
तनहाइयों को झेलने की
जी नही मैं -
किसी अमेरिकी कंपनी में कम नही करता
रात में बैठा रहता हूं
अपने कमरे में
आकृतियाँ बनाता रहता हूं
हँसते बच्चों का
रोती हुई एक असहाय माँ  का
और न जाने क्या -क्या
मेरे इर्द - गिर्द घुमते हैं
बीते हुए जीवन  के
सुनहरे दिनों की याद
उभर उठते हैं
मन- मस्तिस्क के मानचित्र पर
इसीलिए अब
सुबह की प्रतीक्षा
नही सुहाता मुझको
केवल रात की तनहाइयाँ
अच्छी लगती है मन को
लोग सो कर जीते हैं
मै जागकर जी रहा हूं .

Friday, June 4, 2010

नही भूलता वह दृश्य

कल शाम बैठा था
मैं नदी के किनारे
मध्यम लहरों को देखता रहा
ख्याल बुनता रहा
लहर टूटते रहे
मेरे ख्याल भी टूटते रहे
लहरों की  तरह .

दूर किनारे के पार
डुबते रवि को देखता रहा
वह मुस्कुराता रहा
मुझे देखकर
और मैं उसे  देख कर .

मेघों के कुछ अंश
खेल रहे थे
शांत नीलाम्बर मैदान पर
साँझ के शांत मिजाज़ का
लुफ्त उठा रहे थे वे

नही भूलता वह दृश्य
मेरे मन में शमा गया है .

Wednesday, April 28, 2010

मेरे शुन्य आकाश

मेरे शुन्य आकाश को भरने की
तमन्ना है अब मेरे दिल में
अपनी योग्यता को
जांचने की तमन्ना है अब दिल में .
मेरा आकाश शुन्य है
किन्तु जड़ा है तारों से
एक चाँद है
मेरे  आकाश में
देवतायों ने रिक्त  कर दिया है मेरा आकाश
उनका  स्वर्ग  अब बदल चुका है
अब वे शहरों के आलीशान मंदिरों में बसते हैं
मेरे शुन्य आकाश की 
असीमित  सीमायों के परे
रहते हैं  जो 
उनको  मेरा आमंत्रण
आकर वस जाओ
मेरे शुन्य आकाश में
यहाँ तुम्हे 
भय न  होगा
किसी दल  या नेता का
कोई नही जलाएगा
तुम्हारा घर यहाँ
कोई नही  बंटेगा तुम्हे यहाँ
भाषा , धर्म और जाति के नाम पर 
कोई नही होगा यहाँ
आरक्षित किसी स्तर पर
सब समान होंगे यहाँ
सच है कि शुन्य कुछ नही
किन्तु यह भी सच है
शुन्य बिन  कुछ नही .

Tuesday, March 16, 2010

कुछ नहीं बदलनेवाला

मायूस नहीं हूं मै
किन्तु जनता हूं , कि
यह सच है 
कि मेरे प्रयासों से 
कुछ नहीं बदलेगा 
किउंकि -
अब हमने 
सहने की आदत डाल ली है .


जिन पर कभी न बिकने की  मुहर थी 
वे भी अब बिकने लगे हैं 
वे नयन सुख चुके हैं अब 
जो कभी सजल थे .


मेरी सोच नकारात्मक लगे
शायद
किन्तु यह सच है
कि कुछ नहीं बदलनेवाला
सिर्फ प्रयासों से अब .

 नई आशाओं से मै करूँ
तुमसे यह आह्वान , कि
आओ बनाएं अब
वो लहर
जो रुके न किसी बाँध से
और तोड़ डाले कुंठा के चट्टानों  को 
यह लहर  प्रयासों का नही
परिणाम का लहर होगा
उम्मीद अब भी है तुमसे मुझे 
इसलिए मायूस नही हूं मैं .

Sunday, March 14, 2010

जुगनुओं ने

जुगनुओं ने टिमटिमाना
कम कर दिया है
शेष बचे जंगलों में
और मेरे बच्चे
सहजकर रखने लगे हैं
जानवरों की तसवीरें
अपने बच्चों के लिए .

माँ ने उस "बरसाती कोट" को 
बेच दिया है -
जो बाबा ने दिया था उन्हें 
बारिश से बचने के लिए 
मेरे शहर से
 श्रावण  रूठ गया है .

नदियाँ थककर  चूर हैं 
रुक गयी  है 
एक जगह पर 
मैदान बनकर 
श्रावन में भी अब उन्हें 
प्यास लगती है .

भंवर को 
देखा नही कब से 
फूलों पर मचलते 
कुमुदनी अब शायद 
ग्रस्त है किसी "फ्लू " से .   

मेरे आंगन में

मेरे आंगन में
अब चिड़िया नहीं आती
दाना चुगने
शायद उन्हें पता चल गया है
महंगाई का स्तर
और मेरी हालात का .

मेरे आंगन में 
नीम का जो पेड़  था 
पर्णहीन हो चुका है अब 
सदा के लिए 
मेरा आंगन अब 
बंज़र हो चुका है .

झरने अब गीत नहीं गाते 
पहाड़ो से गिरना रुक गया है उनका 
उनके पहाड़ों पर 
अब आदमी का बसेरा है .
तालाबों के मेढकों ने 
"वीजा" पा लिया है 
किसी दुसरे देश का 
अब वे अप्रवासी  कहलाते हैं .  

Saturday, February 20, 2010

सीखना चाहता हूं

चला जाना चाहता हूं
मैं वहां तक
जहाँ तक नजरें जाती हैं .....
जंहाँ देखता हूं रोज
सूरज को डूबता हुए .

मैं पकड़ना चाहता हूं अपने हाथों में
पश्चिम की आकाश में फैले हुए रंगों को
भर लेना चाहता हूं
उन्हें अपने दामन में.
कुमुदनी पर मचलते तितलियों से सीखना चाहता हूं
आशिक बनना
मैं उनका शागिर्द बनना चाहता  हूं .

नन्हे पौधों से सीखना चाहता  हूं
सर झुकाकर नमन करना , और
सीखना चाहता हूं
मित्रता. किन्तु
मनुष्यों से नहीं
पालतु पशुओं से , किउंकि
वे स्वार्थ के लिए
कभी धोखा नहीं देते .

Friday, February 19, 2010

हाथी  का चित्र


पिछले शनिवार
दो बच्चे आये मेरे कमरे पर
उन्होंने बनाये चित्र
तीन हाथियों का
माँ हाथी और उसके दो बच्चे .
मैंने पूछ लिया
हाथी ही किउन ?
जवाब आया
मेरे बच्चों के लिए
कहा ...
जब मेरे बच्चे होंगे
तब हाथी नहीं होंगे शायद जंगल में
किउंकि जंगल नहीं बचेगा तब
सिर्फ आदमी ही आदमी होंगे
फिर बनाया उन्होंने हरी- हरी घांस
जिस पर हाथी चल रहे थे .
मैंने कहा ....
वाह-रे नन्हे चित्रकार
तुम्हारी सोच को नमन .

भोर की कविता

यह भोर की कविता है
इसे लिखने के लिए
मैं रात भर जगता रहा , या फिर
शायद जागकर दिमाग में
इसे  सजाता रहा
अनुभव  गहरा था
अभिव्यक्ति कठिन
शव्दों में सजाना आसान न था .
नींद ने तो कब से बेवफाई कर ली आँखों से
अब वफ़ा शव्द से मेरा
नौ का आंकड़ा है
या फिर मैं यह कहूँ कि..
वफ़ा शव्द से ही
बेवफाई कर ली मैंने
मैं बेवफा हो गया  हूं .

आज मैं यह जो
 कविता लिख रहा हूं
यह एक लम्बी कहानी है
इसे समझ पाओगे  कि  नहीं
कह नहीं सकता
किउंकि यह भोर कि कविता है ......

Thursday, February 11, 2010

हाँ यह सच है

हाँ यह सच है , कि
मैं आर्य  नहीं हूं , किन्तु ..
यह भी सच है ..
मै भी बना हूं
रक्त और मांस से
जैसे बने हो तुम .

मै शिकार करता हूं
आजीविका के लिए
तुम  करते हो शिकार
मनोरंजन  के लिए
खाता  हूं मैं अध्जला  मांस
क्यों कि
अब न जंगल की लकड़ी है मेरे पास
और न ही  केरोसिन  के दाम

पहनता हूं छिन्न वस्त्र
और तुम वस्त्र में भी रहते  हो नग्न
बस यही अंतर है
मेरे तुम्हारे बीच .

दिवानिशि मै करता हूं श्रम
मत भूलो यह
मैंने ही गड़ा था
सर्वप्रथम अपने करो से
उस देवी की  प्रतिमा को
जिसे तुम पूजते हो पुष्पमाला पहनाकर ......
तुम्हारे मंदिर , मस्जिद  और गिरजे की दीवारें
मेरे श्रम का परिणाम है

मैंने ही सीखाया तुम्हारे पूर्वजों को
खेतों में हल  चलाना .....
फिर सीखाया मैंने उन्हें धातु  का व्यवहार
उगाया धान , अन्न  मैंने सबसे पहले
फिर भी मै आर्य नहीं
तुम्हारी नज़रों  में
धूप का चश्मा जो चड़ा है आँखों पर

मै मान चूका हूं , कि
मै आर्य नहीं हूं
तुम्हारी चमचमाती  गाड़ी और पैरों की बूट
अब भी मै ही चमकाता हूं
बनाया था मैंने उस स्कूल की दीवारों को
जहाँ से पढकर तुम्हारे  बच्चे
देते हैं  मुझे अंग्रेजी  में गालियां
मै आर्य नहीं , किन्तु
न मै और न ही मेरे जैसे
देते हैं गालियां मनोरंजन के लिए ......





Thursday, February 4, 2010

चाँद वाली नानी भी प्रभावित है

कलतक चाँद पर
जो नानी दिखती थी
अब वह ..
और बूदी हो गयी है
नानी नहीं अब वह
परनानी  हो गयी है
अब वह  गरीब हो गयी है
इसीलिए ..
धरतीवालों को अपनी ज़मीन बेचने लगी है
पृथ्वी की आर्थिक मंदी से
चाँद वाली नानी भी प्रभावित  है
किउन न हो
दोनों का रिश्ता  जो है
आज नानी ज़मीन बेच रही है
कंही कल वह खुद को न बेच दे .
धरतीवालों का क्या भरोसा
कुछ भी खरीद बेच सकते हैं .

चाँद देखने की आस में

उनके सपने में अब
मै नहीं आता , और
मेरे सपनो में  अब  वे नहीं आते
वे सपना नहीं देखते
और मुझे
नींद नहीं आती  आजकल........

जगता रहता हूं रात भर
चाँद देखने की आस में
किन्तु ...
चाँद  सच में आजकल
ईद का चाँद हो गया है
या फिर  शायद....
वह भी खोज रहा है नौकरी
किसी अमेरिकी  कम्पनी में
रोजी-रोटी  का सवाल है ....
अब लोग पहुँच रहे हैं  चाँद पर
चाँद की खोज में
उन्हें चाँद पर चाँद नहीं
पानी मिला है ....
वैज्ञानिक  पहुँच  गए
जानने के लिए पानी के स्रोत
 पर किसे पता वो पानी
चाँद के आंसू  है
और वैज्ञानिक
आंसू की भाषा नहीं समझते .

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...