Tuesday, November 27, 2018

राजपथ पर नंगे पाँव चलते नागरिक पहचानते हैं मुझे

अब यदि कोई पूछ लेता है परिचय -क्या करते हो कह कर
उनसे कहता हूँ
- दास नहीं हूँ
राजा के घोड़ों को घास नहीं डालता
न ही पिलाता हूँ पानी उनको 
कहता हूँ - मजदूर हूँ
जिन्दगी की लड़ाई में व्यस्त हूँ
कहता नहीं हूँ अभिमान भाव से उनसे
कि कवि हूँ
पर कवि के पक्ष में हूँ
जो किसान -मजदूर और शोषितों की हक़ की लड़ाई में शामिल हैं
राजपथ पर नंगे पाँव चलते नागरिक पहचानते हैं मुझे
राजा से मेरा कोई रिश्ता नहीं है
उनके जलसे में शामिल तमाम लोग मुझे नहीं पहचानते
यही मेरा परिचय है !

Saturday, November 10, 2018

इस पीड़ा का क्या करें

बीते दिनों में
कोई कविता नहीं बनी
लगता है दर्द में कुछ कमी रह गई
पर बेचैनी कम कहाँ हुई है
क्यों भर आती है आँखें अब भी 
तुम्हारे दर्द में
मजदूर की पीड़ा कम कहाँ हुई है
किसान ने फांसी लगाना बंद कहाँ किया
भूखमरी में कमी कहाँ हुई है
निज़ाम ने छलना कहाँ बंद किया है ?
हमको जाना है
चले जायेंगे
पर इस पीड़ा का क्या करें ?

Monday, September 17, 2018

यही मैं ही इस सभ्यता के पतन का कारण बनेगा

मानव सभ्यता के सबसे क्रूर समय में जी रहे हैं हम हमारा व्यवहार और हमारी भाषा हद से ज्यादा असभ्य और हिंसात्मक हो चुकी है व्यक्ति पर हावी हो चुका है उसका मैं इस मैं पर हमारा कोई बस नहीं है मेरा मैं गालियां बकने लगा है हत्या करता है फिर भी शर्मिंदा नहीं होता किसी अपराध पर मैं शर्मिंदा होना चाहता हूँ हर अपराध के बाद किन्तु मेरे मैं का अहंकार इतना मगरूर हो चुका है कि अपराध का अहसास होने पर भी वह शर्मिंदा नहीं हो पाता और तब भी बड़ी बेशर्मी के साथ खुद को मनुष्य बताते हैं हम इसी मैं ने ही आपसी रिश्तों को शर्मसार किया है यही मैं ही इस सभ्यता के पतन का कारण बनेगा

Monday, August 13, 2018

डरा हुआ हूँ उनसे जिन्होंने.....

मैं बहुत डरा हुआ हूँ 
किसी दुश्मन से नहीं 
किसी हमलावर से नहीं 
बल्कि उन लोगों से 
जो जीवित हैं 
किन्तु उनका ज़मीर मर चुका है 
डरा हुआ हूँ उनसे 
जिन्होंने अब भी चुप्पी साध रखी है 
और सबसे ज्यादा भयभीत हूँ 
उन कवियों से 
जिनकी कलम से गायब हो चुका है 
प्रतिरोध |

Monday, July 2, 2018

बहुत साधारण हूँ

जी ,
मैं नहीं हूँ किसी बड़े अख़बार का संपादक
न ही कोई बड़ा कवि हूँ
बहुत साधारण हूँ
और बहुत खुश हूँ
आईना रोज देखता हूँ ...
कविता के नाम पर
अनुभव और संवेदना लिखता हूँ
दबे कुचलों की कहानी लिखता हूँ
समाचार के नाम पर
रात को अक्सर मैं भी रोता हूँ
इन्सान की तरह

Wednesday, June 20, 2018




अपने समय के तमाम खतरों से जानबूझकर टकराते हुए कविता लिखने का साहस कवि नित्यानंद गायेन की विशिष्टता है। बेशक, इसमें पहचान लिए जाने का खतरा भी शामिल है। ऐसे कठिन समय में जब हर सत्यशोधक और प्रगतिशील सोच का श$ख्स फासीवादी ताकतों से ट्रोल हो रहा है नित्यानंद गायेन का कविता लेखन दुस्साहसिकता का प्रमाण है। आजीविका के सवालों से जूझते हुए और स्थाई कैरियर की चाह में भटकते हुए अधिकांश युवा कवि, कविता को एक पार्ट-टाईम शगल समझने लगते हैं। कवि नित्यानंद गायेन कैरियरिस्ट नहीं हैं, समझौता-परस्त नहीं हैं और शायद इसीलिए साम्राज्यवादी, पूंजीवादी और फासीवादी ताकतों के खिला$फ शंखनाद की आवश्यकता के साथ प्रेम की स्थापना पर भी बल देते हैं। थोथा राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद की अफीम कुछ अरसे तक युवा जगत को भरमाए रख सकती है लेकिन लम्बे समय तक इसे एक टूल्स की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। जर्मन और हिटलर की पुनरावृत्ति की कोशिशें एक बार फिर पूरी ताकत से सर उठा रही हैं। उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी मिल रहा है लेकिन यह बात साबित होती जा रही है कि भारत की जनता को इस पागलपन के वायरस से ग्रसित नहीं किया जा सकता है। भारत देश विविधता में एकता की अनोखी मिसाल है। प्रबल राजनीतिक इच्छा-शक्ति और जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए तमाम सवालों के सार्थक समाधान ढूंढने का विकल्प हमेशा खुला रहता है। यह सभी बातें कवि नित्यानंद गायेन की कविताओं में बखूबी उभर कर आती हैं। -अनवर सुहैल


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Thursday, June 7, 2018

आईने में दरार पड़ चुकी है

पत्थर को 
देवता बनाने वाले इन्सान 
पत्थर हो चुके हैं 
हम दिल की बात करते हैं 
वो व्यापारी बन चुके हैं 
दानिश्वर मासूम नहीं होता 
वह शातिर हो चुका है 
कश्म कश किससे है मेरा 
आईने में दरार पड़ चुकी है

'अब बाय'

'अब बाय'
हो सकता है कि इन दो शब्दों के साथ ही
खत्म हो जाती हो आपकी बात
किन्तु
मेरी बातें ठीक इसके बाद ही शुरू होती हैं !
मैंने कब कहा कि उत्सव की रात आज ही है
उत्सव की पूर्व संध्या भी
जश्न के लिए काफी है |
सरकार के पूरे हुए दो साल शासन के
और तुम्हारे ?
याद है न ?
मुझे भय नहीं लगता
न ही मेरा कोई मालिक है
यदि होता भी तो
मैं भय से कभी नहीं जाता उसके शरण में
अँधेरा मुझे निगल सकता है
यह जानते हुए मैं कभी ऐसा न करता
कि मेरा कोई मालिक आता मुझे भय मुक्त करने
चाहे कितना भी खुबसूरत या समझदार क्यों न होता वो
मैं सिर्फ याद रखता कि
वो मालिक है , और मैं केवल गुलाम
और मालिक केवल मालिक होता है
मैं विद्रोह पर उतरूं हूँ
राजा का पतन अब तय है
या तय है
मेरी वीरगति !
जो भी होगा मैं स्वीकार लूँगा
पर विश्वासघात सह नहीं सकता मैं
पीठ पर नहीं
मेरी छाती पर करो वार |
कविता जो छूट गयी थी ....

Tuesday, June 5, 2018

हमारी चुप्पी तब हमारा अपराध होगा

एक एक कर
गायब कर दिये जायेंगे
उनके गुनाहों के तमाम
साक्ष्य ,
तब 
केवल अपराध का साम्राज्य होगा
इस वक्त हमारी चुप्पी
तब हमारा अपराध होगा !

तस्वीर : गूगल से साभार 

Wednesday, May 30, 2018

हवा में आज नमी है

मेरे शब्दकोश में रह गये हैं
अंतिम तीन शब्द
ये तीन शब्द प्रयोग में आते हैं
विदा लेते समय |
अब न कहना कि
पता नहीं तुम्हें
रात के इस पहर में
बहुत नीरवता है मेरे कमरे में
हवा में आज नमी है
तापमान में यह गिरावट अचानक आयी है
बदलाव अच्छा है
किन्तु मौसम का यह बदलाव टिकाऊ कभी नहीं रहा
मैं मध्यम वालूम में सुन रहा हूँ
उस्ताद राशीद खान के स्वर में
राग झिंझोटी.....
चांदनी रात में देखा है कभी
शांत रेगिस्तान को
महसूस किया है कभी
उसकी ख़ामोशी को !
यह कविता बन गयी है शायद ...
देखो पढ़ कर
महसूस करो मेरे भीतर फैले
रात के निशब्द मरुस्थल की पीड़ा ...
मान लो आज फिर
मुझे,
तुम अपना कवि....!


रचनाकाल :31 May 2016 at 00:40 

बहुत वीरान समय है


बहुत वीरान समय है
और ऐसे में तुम भी नहीं हो यहाँ
राजा निरंकुश है
बहुत क्रूर है
और मैं लिखना चाहता हूँ
हमारी प्रेम कहानी
तुम कहो -
क्या लिखूं - अंत,
मिलन या मौत ?
राजा हमारी मौत चाहता है
और मैं चाहता हूँ मिलन !
राजा रूठे तो रूठे
तुम न रूठना कभी ...|

 31 May 2017 at 21:57 

Tuesday, May 29, 2018

नहीं छीन सकते तुम हमसे हमारा विवेक और साहस

हालात यह है
कि अब हमारी मौत का पेटेंट भी
उन्होंने अपने नाम करवा लिया है
और इस ख़ुशी में
वे राजधानी में जश्न मना रहे हैं
गिद्धों ने यूँ ही नहीं किया था यहाँ से पलायन
वे जान चुके थे
कि एकदिन
सत्ता हमारा मांस नोचेगी
भुखमरी की भविष्यवाणी से
उनका पलायन जायज कहा जा सकता है आज
सच के उजागर करने पर
हम पर विद्रोह का लगेगा आरोप
इसका आभास था सभी को
किन्तु हमेशा की तरह
हम फिर उनके झूठे वादों में बहक गये
अब ऐसे में जब हमारे पास
न तो जीने का अधिकार है
न ही मरने का अधिकार,
तो क्यों न हम फिर से याद करें सुकरात के ज़हर के प्याले को
और तोड़ दें राजा की तमाम मूर्तियों को !
ताकि मृत्यु आये
तो आये सुकरात की मृत्यु की तरह
ताकि अहसास हो जाये राजा को
कि सब छीन सकते हो हमसे
पर नहीं छीन सकते तुम
हमसे हमारा विवेक और साहस |

Monday, May 28, 2018

मैं सलाम करता हूँ उन बच्चों को जिन्होंने

मैं बहुत खुश हूँ
कि तमाम सम्पन्न लोगों के बच्चों ने
10 सीजीपीए ग्रेड से पास कर ली हैं बोर्ड की परीक्षा
मैं उन सभी संपन्न परिवारों के बच्चों को बधाई देता हूँ
जिनके माँ-बाप के पास ट्यूशन के लिए पैसे तो हैं , पर समय नहीं 
और कुछ बच्चों के अभिभावक कालेजों में बच्चों को पढ़ा कर अपनी पहचान बताते हैं और घर चलाते हैं
पर मेरी एक मज़बूरी है
मैं सलाम करता हूँ उन बच्चों को जिन्होंने
10 सीजीपीए के बिना पास कर ली जिन्दगी की परीक्षा
जिनके नहीं आये फर्स्ट डिविजन
जो काम करते हुए पढ़ते हैं
जिनके माँ-बाप के पास नहीं है ट्यूशन का पैसा
और जो नहीं लिखते
अपने बच्चे के पास होने की सूचना फेसबुक पर
यह भी मेरी कविता नहीं ...
यूँ ही ... लिख दिया
-------------------
29 मई 2016 

Saturday, May 5, 2018

मुझे सपने में देखना

जब तक
मैं लौटा
गहरी नींद आ चुकी थी तुम्हें
तुम्हारे दिये 
जंगली फूल की मीठी खुशबू से
भर गया था मेरा कमरा
तुम्हारी नींद में
कोई ख़लल न पड़े
इसलिए
बड़ी सावधानी से प्रवेश किया
तुम्हारे सपनों की दुनिया में 

आज तुम
मुझे
अपने सपने में देखना |
-------------------
6 मई 2016 

Thursday, April 5, 2018

साम्राज्य के विस्तार के लिए

महान सम्राटों और साम्राज्यों की
महानता की कहानियां
लिखी गयी हैं
लाखों -करोड़ों इंसानी लाशों पर
इतिहास में दर्ज़ तमाम महानताओं की बुनियाद में 
करोड़ों इंसानी लाशें दबी हुई है
आतंक और अपने साम्राज्य  विस्तार के लिए
पहले राजा छोड़ देता था
अपने एक बेलगाम घोड़े को
अवैध रूप से जहाँ तक
चला जाता था घोड़ा
वहां तक फैल जाता था राजा का साम्राज्य
या फिर
राजा करता था
कलिंग जैसे किसी शांतिप्रिय राज्य पर
अवैध चढ़ाई |
अश्वमेध के लिए अब
घोड़े नहीं बचे हैं राजा के पास
राजा के पास अब
केवल गौशालायें हैं !

रचनाकाल : 6 अप्रेल 2017 

Tuesday, March 27, 2018

गली की दीवारों पर बाकी रह जाते हैं खून के धब्बे

अक्सर दंगों के बाद
सभी दोषी निर्दोष पाये जाते हैं
बस शहर की सड़कों और
गली की दीवारों पर बाकी रह जाते हैं
खून के धब्बे 
जले हुए घरों की अस्थियाँ
और राख में छिपी हुई चिंगारी
सन्नाटे में खो जाती हैं
मासूम चीखें
आग जो लगाई गई है
धर्म के नाम पर
उस पर हांडी चढ़ा कर
इंसानी गोश्त पका रहे हैं नरभक्षी
गंगा किनारे सहमा हुआ है नगर-मोहल्ला
न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बांध कर सो गई है
आसमान पर फैल गए हैं
धुंए के बादल
सब कुछ जल जाने के बाद
शहर में अब कर्फ्यू लगा है !

Tuesday, March 13, 2018

मैं तुम्हारे चेहरे की हंसी बुन रहा हूँ

1.
सुनो, 
नदी में जल रहे 
या 
न रहे, 
मेरी आँखों में 
बाकी रहेगा गीलापन
जब चाहो
तुम
देख लेना
अपना चेहरा
मेरी आँखों में |


2.


मैं,
तब भी तुम्हारे साथ था
जब तुम्हारा नहीं था
कोई परिचय मेरे साथ
और मैं लगातर 
अनुभव करता रहा
तुम्हारे दर्द को |

अकेलेपन में
तुम्हारे दर्द के बारे में
मेरा अनुमान कितना सटीक था
यह तुम ही जानो
मेरा अनुमान आज भी वही है
ठीक मेरे अकेलेपन की तरह
मेरे इस कमरे में
जहाँ मैं हूँ
अपनी तनहाई के साथ
और तुम हो शायद व्यस्त हो
अपनी भरी-पूरी दुनिया में
मैं गिन रहा हूँ
घड़ी की टिक-टिक इस तरह
जैसे डाक्टर गिनता है
दिल की धड़कन बीमारी में
मैं तुम्हारे चेहरे की
हंसी बुन रहा हूँ ......




रचनाकाल : मार्च , 2016



Monday, March 5, 2018

वह चाहता है हर जुबां पर अपना नाम और जयगान

अन्याय
और क्रूर बर्बरताओं की कहानियां
जो हमने किताबों में पढ़ी थी
अब देख रहे हैं
तानाशाही सत्ता उन्माद पर है 
रातोंरात कर लेना चाहता है
सब कुछ अपने नाम
दीवार पर लिखे हर सवाल को मिटा देना चाहता है
बंद कर देना चाहता है हर जुबान को
जो सवाल करती है
सत्ता पर होने के बाद भी
बहुत डरा हुआ है वह
नगर के हर नुक्कड़ और चौराहे पर
बना देना चाहता है अपनी मूर्ति
वह चाहता है हर जुबां पर अपना नाम और जयगान
दरअसल तानाशाह एक डरा हुआ व्यक्ति है
अकसर वह अपनी परछाई से भी डर जाता है
और उसे भी मिटा देना चाहता है
इसलिए वह अंधकार फैलाता है
अकेले में वह चीखते हुए अपने कान बंद कर लेता है
हार कर वह रोना तो चाहता है अक्सर
किन्तु उसकी आँखों में पानी नहीं है

Thursday, March 1, 2018

इस तरह ढय जाता है एक देश

जब देश से भी बड़ा हो जाता है
शासक
और नागरिक से बड़ा हो जाता है
पताका
जब न्याय पर भारी पड़ता है 
अन्याय
और शिक्षा को पछाड़ दें
धार्मिक उन्माद
तब हिलने लगता है
देश का
मानचित्र
इसी तरह से भूकम्प आता है
और ढय जाता है
एक देश |

Tuesday, February 20, 2018

मैं मजाक का पात्र हूँ

जानता हूँ कि
मैं मजाक का पात्र बन चुका हूँ
इस समय सच कहने वाला हर शख्स 
मज़ाक का पात्र है आपके लिए 
हर भावुक व्यक्ति जो
मेरी तरह बिना किसी चालाकी के कह देता है
अपनी बात
वह मूर्ख है
आपकी नज़रों में
मैं जानता हूँ
मुझे उस वक्त अहसास हो गया था
अपनी नादानी का जब
मैंने तुमसे कह दी थी दिल की बात
और तुम पर कर लिया था भरोसा
लोग हँसते हैं मुझ पर
सोचते हैं पागल है
शायद इस वक्त होश में नहीं है
सही कहते -सोचते हैं लोग
तुम्हें सोचते वक्त कब मैं
होश में रहता हूँ भला ?
पर मुझे याद है कि
मेरा भरोसा टूटा तो है
मैं बदले के लिए दुश्मनों का सहारा नहीं लेता
क्योंकि मैंने दोस्त बनाएं हैं
दुश्मन नहीं
पर अब दोस्तों में भी किसी दोस्त को खोजना
बहुत कठिन है
प्रेम मरता नहीं कभी
बस बदनाम होता है जीवन काल में
और मेरा जीवन कुछ लम्बा हो गया है शायद
तुम्हारे लिए !

Friday, February 16, 2018

खोजो


खोजो कि कुछ खो गया है
पर खोजो यह मान कर कि सब कुछ खो गया है
खोजो कि खो गई हैं
हमारी संवेदनाएं
बच्चों का बचपन खो गया है
खोजो, कविताओं से गायब हुए प्रेम को
और सभ्यता की भाषा खो गई है
खोजो कि देश का लोकतंत्र कहाँ खो गया है
सत्ता का विवेक खो गया है
नागरिक का अधिकार खो गया है
मानचित्र तो मौजूद है
कहीं मेरा देश खो गया है
उसे खोजो धरती की आखिरी छोर तक
खोजो कि,
किसान का खेत खो गया है
पेड़ की चिड़िया खो गई है
खोजो इस भीड़ में कहीं
मेरी तनहाई 
खो गई है
खोजो मुझे कि
मैं खो गया हूँ

Tuesday, February 6, 2018

सूरदास खुश हैं ........



आज फिर हाथ लगी पुरानी डायरी , इसमें अधूरी पड़ी एक कविता कुछ सुधार के साथ .........

प्रेम करता हूँ कहना 
आसान हो सकता है 
पर उस प्रेम को को महसूस करे कोई 
सबसे मुश्किल यही है 
दरअसल प्रेम लिखना और प्रेम करना दो अलग-अलग क्रियाएं हैं 
किन्तु दोनों के लिए ही प्रेम का अहसास बेहद जरुरी है
जरा सोचिए जब आप 'प्रेम' शब्द को लिखते हैं 
उस वक्त आपके मन में कैसा भाव उठता है ? 
तब कुछ मीठा सा या कुछ खालीपन भी उभर सकता है मन में 
और उस अहसास को 
हम अलग -अलग शब्दों से व्यक्त करते हैं शायद 
अपने उस प्रेम को हम 
अक्सर मुकम्मल शब्द नहीं दे पाते 
जो काम हम शब्दों से नहीं कर पाते 
अक्सर वह बात व्यक्त हो जाती है आँखों से 
स्पर्श से महसूस कर लेता है कोई 
उस प्रेम को
आजकल हमारी आँखें सूख रही हैं 
हाथ खुरदरे हो चुके हैं 
इसलिए लगातर असमर्थ हो रहे हैं हम 
उस प्रेम को व्यक्त करने में 
आँखों से, 
स्पर्श से !
हमारी भाषा कड़वी हो चुकी है |
हम बाजार में घूम रहे हैं नये नये गैजेट की तलाश में 
जिसके सहारे 
हम क्षण भर में लिख भेज देना चाहते हैं अपना प्रेम 
तभी पता चलता है कि 
किसी गाँव में 
खाप ने मौत की सज़ा सुनाई है एक प्रेमी को 
किसी मौलाना ने जारी किया है कोई फ़तवा 
और किसी माँ-बाप ने मार दिया अपनी संतान को 
प्रेम के अपराध में
बगल में कहीं एक 
राधा-कृष्ण के मंदिर के बाहर मीराबाई 
उदास आँखें लिए 
बैठी हैं 
सूरदास खुश है कि 
वह नेत्रहीन हैं |

रचनाकाल : 22 मार्च , 2014 

Friday, February 2, 2018

तो हैरानी के सिवा बचता क्या है ?

थ्री पीस सूट त्याग कर
घुटनों तक धोती में आकर ही
मोहनदास
महात्मा बने
अब कोई
उनके चरखे के साथ तस्वीर खिंचवाकर
शांतिदूत बनने की तमन्ना रख लें
तो कोई क्या करें !
राजकुमार सिद्धार्थ
लुम्बिनी का राज महल छोड़कर
जंगल -जंगल ज्ञान की तलाश में भटककर ही तो
बने थे गौतम बुद्ध |
अब कोई लाखों का सूट पहिनकर
खुद को फकीर कहें
तो कोई क्या करें ?
हिंसा जिसके शब्दों में व्याप्त हों
वो करें शांति और अमन की बात
तो हैरानी के सिवा बचता क्या है ?
सुकरात के ज़हर के प्याले के बारे में
जिसे कोई ज्ञान नहीं
वह करें त्याग की बातें
तो इसे आधुनिक भाषा में
कामेडी ही कहा जायेगा
अब उसकी हरकतों पर हैरानी नहीं होती
बस हंसी छूट जाती है
उसके तालाबों में
कितनी मछलियाँ जीवित बची होंगी
गोधरा को याद करते हुए
बताइएगा मुझे |

Monday, January 29, 2018

महात्मा के लिए

सम्भव है कि
गोडसे के उपासक भी
सुबह तुम्हारी समाधि पर जाएंगे
तुम्हें श्रद्धांजलि देने
बिलकुल वैसे ही जाएंगे
जिस तरह जाते हैं वो
तुम्हारे आश्रम में
तुम्हारे चरखे पर बैठ तस्वीर खिंचवाने के लिए
किन्तु वो कभी भी नहीं कहेगा
गलत था गोडसे |
सुकून से रहो बापू अपनी समाधि में
यहाँ आग लगी हुई है चारों ओर
यह आग फ़ैल रही है तेजी से पूरे मुल्क में
जंगल की आग की तरह
बुझाने की जिम्मेदारी जिन पर थी
अब वे ही इस आग को हवा दे रहे हैं !
आपका चश्मा अब
विज्ञापन के काम आता है
और आपका चरखा
कैलेंडर की तस्वीर के लिए
आपकी छड़ी और घड़ी का पता नहीं मुझे
आपकी बकरी कहीं नहीं मिली
आपके बन्दर चारों ओर घूम रहे हैं किन्तु
सत्य के साथ आपका अनुभव भी तो ऐसा ही था न ?
बापू तुम दुःखी मत होना
हत्या को अब पाप नहीं मानते यहाँ के लोग |
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Monday, January 22, 2018

हक़ीकत से वाकिफ़ होते हुए भी

और एकदिन पड़ा रहूँगा
किसी सड़क पर
सूखे हुए किसी पत्ते की तरह
जानता हूँ
भविष्य का आभास होते हुए भी
विचलित नहीं हुआ हूँ अबतक
ये उस प्रेम का कमाल है शायद
जिसकी कल्पना के दायरे में
केवल तुम्हारा चेहरा है
हक़ीकत से वाकिफ़ होते हुए भी
बहुत रूमानी लगता है मुझे
मेरे प्रेम की काल्पनिक दुनिया |
बिजुरी / २३ जनवरी २०१६

Wednesday, January 17, 2018

मैं थका हुआ एक मजदूर और तुम्हारा प्रेमी हूँ

कितनी नफ़रत
और हिंसा फैल चुकी है
हमारे आस-पास
ख़बरों के शब्दों में विष घुल चुका है
समाचार वाचक भी चिल्ला रहा है 
जैसे वह हमें किसी निज़ाम की तरह हुक्म दे रहा हो
मन बेचैन हो उठता है
तन थक कर चूर होने के बाद भी नींद नहीं आती
आँखें भीग जाती है
और जुबान पर छा जाती है ख़ामोशी
सुबह उठ कर सूरज की किरणों को
ओस की बूंदों को चुमते हुए देखना चाहता हूँ
किन्तु ऐसा हो नहीं पाता
मैं बहुत दिनों से अधूरी पड़ी उस प्रेम कविता को
पूरा करना चाहता हूँ
जिसे तुम्हारे लिए शुरू किया था
पर ऐसा हो नहीं पाता
मेरी सारी इच्छाएं
एक मजदूर की इच्छा है
जो कभी पूरी नहीं होती
जबकि इस दुनिया में
सबसे अधिक श्रम वही करता है
और नगर में पकते शाहीभोज की महक से
अपनी रूह भर लेता है
अब बहुत थक चुका हूँ
विश्राम करना चाहता हूँ
और चाहता हूँ कि
तुम भी कभी भूले से
मुझे याद करो
किन्तु यह ज़रूरी नहीं
तुम मेरी इच्छानुसार कुछ करो
मैं थका हुआ एक मजदूर
और तुम्हारा प्रेमी हूँ
किसी सियासत का
हुक्मरान नहीं हूँ |

Sunday, January 14, 2018

जबकि वादा जीवन भर का था

मैं चाहता हूँ
मुझे भी मिले सज़ा-ए-मौत
लोकतंत्र में
प्रेम करने के अपराध में
किसी राष्ट्रवादी शासक के इशारे पर 
किसी अदालत द्वारा
मेरी फांसी से ठीक पहले
पूछे जल्लाद मुझसे
मेरी आखिरी इच्छा
और मैं कहूँ -
उससे मिलना चाहता हूँ आखिरी बार
जिससे मैंने प्रेम किया
और जिसने छोड़ दिया मेरा साथ
मेरी मौत से पहले
जबकि वादा
जीवन भर का था

रचनाकाल : 15 जनवरी 2017 

रात नाटक पढ़ते हुए

रात नाटक पढ़ते हुए 
मैंने शराब पी
नाटक की नायिका से
अपने प्रेम का इजहार किया |

आज
मैं, 

नाटक से बाहर हूँ ...!


रचनाकाल : जुलाई 2015 

Saturday, January 6, 2018

दर्द ही जब कैफ़ियत हो

दर्द ही जब कैफ़ियत हो
क्या किया जाये !
मेरी वसीयत में
इक तुम्हारा नाम था 
जिसे तुमने जला दिया
जल कर
जीने की पीड़ा
नहीं समझेंगे दानिश्वर |
बच्चों की भाषा भी कब समझते हैं वे
उन्हें संस्कृति के
बादलों ने ढक लिया है |
मैंने प्रेम किया
खुले आकाश तले तुमसे
गवाह है नदी के घाट,
खुली सड़कें
हरे -सूखे पेड़
और वो पनवाड़ी
जिसने तुम्हें बना कर दिया था
मीठा पान पहलीबार |
जिस तरह था भरोसा मेरा
तुम पर
वैसा ही था
उन पर
जिन्हें, दोस्त माना था अबतक
जैसे माना तुम्हें
अपने जीवन का हिस्सा |
मेरे विश्वास को तोड़कर
मुझे सचेत किया तुमने
मैं आभारी हूँ तुम्हारा
दोस्तों !

7 जनवरी 2017 

Friday, January 5, 2018

कविता उन याद आये लोगों के पास है

भीतर की बेचैनी
थके हुए तन को सोने नहीं देती
कमरे में
ठंड ने कुछ इस तरह से
किया है कब्ज़ा 
जैसे कि
उसने भी बहुमत पा लिया है
कम्बल किसी कमज़ोर विपक्ष की तरह
मुझे ताक रहा है !
मैं सोना चाहता हूँ
किन्तु मेरे दिमाग में
बार -बार उभर कर आ रहा है
किसान मजदूर का चेहरा
जिसे अल-सुबह नंगे पैर खेत पर जाना है
उस आदमी का चेहरा याद आ रहा है
जिसे सुबह पानी में उतरना है
अपने परिवार के लिए
इस कंपकंपी सर्दी में खुली सड़क किनारे
घुटनों को पेट पर बाँध कर सोने वाले
लाखों लोगों की अनकही पीड़ा को
किसी ने मुझे ओढ़ने के लिए दिया है
और मैं अपने कमरे में सिगरेट जला रहा हूँ !
अपने कमरे में बैठ कर
ये सब लिख कर
खुद को कवि मान रहा हूँ शायद
पर सच यही है कि
कविता उन याद आये लोगों के पास है
जिन्हें मैं शब्दों में पिरो रहा हूँ

Tuesday, January 2, 2018

बस्तियों में लोग गहरी नींद में सो रहे हैं

साल बदल गया है
किन्तु, 
ज़ुल्म का जश्न जारी है अब भी
सत्ता खुश है
विपक्ष बेहाल है
न्याय की ख़ामोशी नहीं टूटी अब तक 
ज़ख्मों से खून का रिस रहा है लगातर
कान बंद हैं 
चीखें अब सुनाई नहीं देती हमें
सिपाही खड़े हैं सीमा पर शहीद होने को
उनके नाम पर सियासत कायम हैं
दरिया का रंग सुर्ख हो चुका है बहुत पहले
आँखों ने रंगों को पहचानना छोड़ दिया है
सांसे तो चल रही हैं
पर,दिल की धड़कन धीमी पड़ गई है
गाय रंभा रही है नदी के आर -पार
जंगल की आग लगातर फैल रही है
आबादी नज़दीक है
बस्तियों में लोग गहरी नींद में सो रहे हैं
कबीर चीख़ रहे हैं
पर हमने उन्हें सुनना बंद कर दिया है 
राज सभा में शतरंज का खेल जारी है
इस बार अज्ञातवास पर कौन जायेगा
इस पर कोई चर्चा नहीं है कहीं
प्रजा का पलायन जारी है
पर अब राजा न तो अंधा है
न ही बहरा
हाँ, वह नि:संतान ज़रूर है
संतानहीन हो चुके माँ -बाप उससे
अपने बच्चों के लिए इंसाफ़ मांग रहे हैं
और राजा हंस रहा है
उन्हें देख कर !

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...