Thursday, November 26, 2015

सत्ता नहीं समझेगी कभी प्रेम का उल्लास और विरह की पीड़ा

कठोर से कठोर हो रहा है समय
और तुम गुज़र रहे हो कठिन संघर्ष से पल-पल
और तुम्हारी पीड़ा से गुज़र रहा हूँ मैं
सत्ता को न अहसास है न ख़बर
सोचना होगा हमें मिलकर 
इस पीड़ा से मुक्ति का मार्ग
और इसलिए मैं लगातर सोच रहा हूँ तुम्हें
और लिख रहा हूँ
रोज एक प्रेम कविता
तुम्हारे लिए
मेरी अनुपस्थिति में रोज पढ़ना तुम
इन्हें
सत्ता नहीं समझेगी कभी
प्रेम का उल्लास
और विरह की पीड़ा
याद रखना
-तुम्हारा कवि 

चित्र : गूगल  से साभार  


Wednesday, November 25, 2015

आदमी जब जरुरत की वस्तु में बदल जाता है

आदमी जब जरुरत की वस्तु में बदल जाता है
जरुरत के बने रहने तक ही
वह रहता है सार्थक
जरूरत की समाप्ति के साथ
हो जाता है निरर्थक
इतना असहाय बना दिया जाता है
कि, उसके मुह पर कहा जा सकता है
खत्म हो चुकी है उसकी जरूरत
कचरे के किसी डिब्बे में
कूड़े के ढेर में पड़ा किसी बेकार वस्तु की तरह

विज्ञान की तरक्की के साथ
हमने सीख लिया है
कचरे से खाद, ईंधन और अन्य उपयोगी वस्तु बनाना
पर अभी तक हम खोज नहीं पाए हैं
ऐसी कोई तकनीक
जिससे बना सके
जरूरत के बाद ठुकराए आदमी को उपयोगी बनाना ...
और ऐसे में खो जाता है अंधकार में  
एक व्यक्ति !

..तुम्हारा कवि

Monday, November 23, 2015

अवसाद के अँधेरे में गुम हो जाता है खिलौना

अख़बारों का एक ढेर
कमरे के कोने में है
और उसी कमरे में
एक पुरानी चारपाई पर पड़ा है
बीमार एक वृद्ध 
कमरे के बाहर जो बड़ा सा मकान है
जिसे सब लोग घर कहते हैं
उन्हें कोई खबर नहीं उस अकेले कमरे की
अख़बार के ढेर में दब कर दम तोड़ रही हैं पुरानी खबरें
और वह वृद्ध

क्या अंतर है
अख़बार के पुरानी खबर में
और तन्हा उस बूढ़े में !
जबकि कमरे के बाहर लगातर हलचल है
तनहाई न सुनाई देती है
न दिखाई देती है
समय के साथ बड़ा होता है शिशु
और भूलता जाता है
अपने खिलौनों को
जिनसे वह दिल बहलाता है
और अवसाद के अँधेरे में गुम हो जाता है खिलौना !
यह किस्सा कहानी तक सीमित नहीं रहता |


Saturday, November 21, 2015

आकार बदलने लगे हैं पत्थर

समय के प्रभाव में 
आकार बदलने लगे हैं पत्थर
गोल -गोल पत्थर 
अब नुकीले हो रहे हैं ......
ये नुकीले  पत्थर  उठेंगे हाथों  में 
शोषण के  विरुद्ध  
न्याय  के पक्ष  में 
एक दिन  !

Wednesday, November 18, 2015

बहुत वीरान समय है

बहुत वीरान समय है
और ऐसे में तुम भी नहीं हो यहाँ
राजा निरंकुश है
बहुत क्रूर है
और मैं लिखना चाहता हूँ
हमारी प्रेम कहानी
तुम कहो -
क्या लिखूं - अंत,
मिलन या मौत !
राजा मौत चाहता है हमारी
और मैं चाहता हूँ मिलन !
राजा रूठे तो रूठे
तुम न रूठना कभी ...
-तुम्हारा कवि


Sunday, November 15, 2015

मैं अपने पापों की पोटली ढो रहा हूँ नदी किनारे

ट्रेन पहुंच चुकी है गंतव्य पर
मुसाफ़िर के साथ
रात के आकाश पर फ़ैल गया है अंधकार
उदासी में खो गया चाँद
मैं अपने पापों की पोटली ढो रहा हूँ नदी किनारे 
गंगा भीग चुकी हैं
अपने ही आंसुओं में
मैं रात भर सो नहीं पाया
तुमसे लड़ने के बाद
आओ मिल जाएँ हम फिर से
तुम सागर बन जाओ
मैं नदी बन जाऊंगा ...
इंतज़ार में..

चित्र : गूगल से साभार |

Saturday, November 14, 2015

कितना आज़ाद था मैं

लिंगमपल्ली के उस छोटे से रेलवे स्टेशन के ठीक बाहर
राम प्रसाद दुबे कालोनी में
एक दस बाई दस के कमरे में
कितना आज़ाद था मैं
मखदूम मोहिउद्दीन के शहर हैदराबाद में
खुश था मेरे भीतर का कवि
ग़ालिब तुम्हारे तलाश में
ये कहाँ आगया मैं दिल्ली में !
हर तरफ घुटन है
नफ़रत है
प्रेम नहीं तेरे शरह में अब
इर्ष्या फ़ैल चुकी है हवाओं में
घुट रही है मेरी सांसे
जबकि मैं आया था जिन्दगी की तलाश में यहाँ
ओ शहर ..
याद करो तुमने आखरी बार
कब किया था किसी का स्वागत
बाहें फैलाकर !
तुम्हारे फुटपाथों पर
जो अनगिनत क़दमों के निशान हैं
वहां खोज रहा हूँ
मैं लौट जाने का रास्ता .....
-तुम्हारा कवि

Friday, November 6, 2015

इन्कलाब ज़ारी रहे

आदिवासी जंगल से खदेड़े गए
किसान जमीन से बेदखल हुए
मज़दूर को बना दिया अपंग
मछुआरों से छीन लिया जाल और समन्दर
पहाड़ पर चढ़ गए टाटा, अडानी/ अम्बानी और जिंदल
अब बाकी बचे नागरिकों से देश छिना जा रहा है .
ज़मीन की लड़ाई लम्बी होती है साथियों....|
इन्कलाब ज़ारी रहे ......

चित्र : गूगल  से  साभार 

Sunday, November 1, 2015

तुम्हारा कवि

हर रात सुनता हूँ
किसी की सिसकियाँ
खोजता हूँ उसे
दीखता नहीं कोई अँधेरे में
तब मैं आईना देखता हूँ......
यूँ ही
तुम्हारा कवि



इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...