Saturday, December 12, 2009

भूल गया था मैं तुम्हें

एक लंबे अन्तराल के बाद
आज फिर
तुम मुझे याद आए
अचानक .....
पर क्या
सच में भूला  था तुम्हें  ?
मेरी आदत नही
भूले हुए को याद करना

कब भूला मैं
तुम्हें
कब तुम याद आए मुझे ?
इस भूलने और याद आने के दरमियाँ
मैं  जीता रहा
ऊम्र बीतती रही हमारी
किंतु,
हर वक्त
एक परिचित चेहरा रहा मेरे आसपास
हर पल
उसे ही आँखों में लेकर
भटकता रहा
भीड़ में तन्हा
एक महानगर में ।

Tuesday, November 10, 2009

बैठे रहो छांव में

बदन जलाती गर्मी में
तनिक बैठो
इस वृक्ष की छाव में
अब सुनो
पीपल के पत्तों की
खुसुर - पुसुर
क्या सुना तुमने ?
बातचीत या गीत ?
वृक्ष ही तो है
हमारे सच्चे मित्र ।
बैठे रहो यों ही
समय जाएगा बीत
दोनों की है यही रीत
हम मारते हैं
और
वृक्ष हमे बचाते हैं ।

नास्तिक हूँ फिर भी

नास्तिक हूँ
बावजूद इसके
भेजा था एक पत्र
उस काल्पनिक भगवान को
नही मालूम मुझे , कि
मैंने सही लिखा था उसका पता , या
ग़लत
मालूम नही उसे मिला कि नही अबतक
अपने लिए माँगा नही कुछ उस पत्र में मैंने
बस इतनी
गुजारिश की है मैंने , कि
अब कोई बिस्फोट न हो
इस धरती पर
मरे न कोई मासूम बेकसूर
और हो दुष्टों का नाश
बस
यही माँगा है
उस पत्र में
जो भेजा है मैंने उसे
अब तक कोई जबाव नही आया
न ही मेरा पत्र
लौट कर आया
और नही पूरी हुई मेरी तमन्ना
तो फिर क्या हुआ मेरे पत्र का
कहाँ पहुँचा आया डाकिया
मेरे पत्र को ?
क्या डाकिया को भी नही पता
उस भगवान का सही पता ?
या वो भी नास्तिक है मेरी तरह
इसीलिए
नही पंहुचाया मेरा पत्र उन तक
जो रहते हैं कंही
आस्मां के किसी कोने में
छुप कर
कोटि - कोटि मानव के मन में
आदर है उस भगवन के लिए
जो बसता है कहाँ नही मालूम उन्हें ।

Tuesday, November 3, 2009

भारत के मंत्री जी

कृषि मंत्री पवार
उनपर है क्रिकेट सवार
यमराज घूम रहे हैं
किसानो के खेतों में
मंत्री जी घूम रहे हैं
दुनिया भर के देशों में ।


हम देख रहे हैं आजकल
एक स्वप्ना
बने देश महान अपना
कुर्सी पर जो बैठे थे कलतक
जनपथ के बंगलो में उनका कब्जा है आजतक ।


देश का शासन
देता है हमे आश्वाशन
वर्षों तक वेही करेंगे शासन
और भी देतें हैं बहुत कुछ
कोई भूखा पेट नही सोयेगा
कोई बच्चा अब नही रोयेगा

भूखा है पेट
तो पानी पीकर लेट
पानी अब कहाँ मिलता है
बिना पैसे
पहले जैसे ।


क्रिकेट के हर गेंद पर
अब होता है चर्चा
कौन करे अब समय
कृषि पर समय खर्चा ?




चाँद के आंसूं

सुना है चाँद पर
पानी मिला है , और
वैज्ञानिक परेशान है
पानी का स्रोत खोजने में
उन्हें कोई बता दे , कि
वो पानी दरसल पानी नही
चाँद के आंसूं हैं
चाँद आहत है
आदमी की करतूतों से ।

Saturday, October 31, 2009

सपने खरीदने लगा है इन्सान

साथी अब हाथ नही बढाता
साथी अब हाथ खीचता है पीछे
साथी अब जान चुके हैं
बाजारवाद - पूंजीवाद का स्वाद ।

उसे शायद लगा है
मीठा इसका स्वाद
तभी तो ख़ुद को बेचकर
वह सपने खरीदने लगा है ।

पहचान खोने लगा हूँ

अपनी सफलताओं , उपलब्धियों को
गिनना चाहता हूँ
कुछ नही
केवल शून्य पाता हूँ ।

निराश नही मैं
किंतु
ख़ुद को पराजित पाता हूँ मैं ।

रोज़ ख़ुद को देखता हूँ
आईने में
अपना चेहरा
बदला - बदला पाता हूँ मैं ।
अपनी पहचान खोने लगा हूँ मैं ।

मेरे जन्म की सज़ा

शायद यही सज़ा है
इसी तरह जीना है
उम्र भर मुझे
जन्म जो लिया मैंने
इस युग में
इस देश में ।

सदियों पहले
गौतम आए इस देश में
मोक्ष की तलाश में
उन्हें मिला सत्य
बन गए बुद्ध

फिर आए कई
गए कई
इस देश में
आने और जाने का सिलसिला
यूँही जारी रहा

अब मैं हूँ आया
जैसे आए हजारों
मेरे साथ
मेरे बाद
मैं जाना चाहता हूँ
बहुत दूर
जहाँ मिले मुझे आत्म ज्ञान
मिले जहाँ सबको सम्मान
जहाँ न हो कोई अपमान ।
किंतु
शायद ऐसी कोई
जगह नही बची
इस धरा पर आज
और
मुझे
इसी तरह जीना है
इस युग में ।

बापू के सपने

आजाद भारत का जो सपना
देखा था बापू ने
काटा है उसे देश के
वर्तमान नेताओं के चाकू ने ।
मरते हैं लोग
पकते हैं भोग राजधानी में
मानते हैं शोक दिखाव के ।
अनाज भरे हैं देश के
गोदामों में , फिर
चूल्हा किउन
ठंडा हैं झोपडो में ?
धुआं किउन भरा है उनके फेफडो में
जो रहते हैं उन झोपडो में ?
देश की जो जनता हैं
उनमे नही एकता है
वे लड़ते हैं
हम लड़ते हैं आपस में
कभी मन्दिर पर
कभी मस्जिद पर ।

उगता है रवि
लिखते हैं कवि
बिकते हैं सभी ।
बोलते हैं झूट
करते हैं लूट
खुले आम
सरेआम
बढ़िया करते हैं
बस यही काम
विदेशियों से करते हैं
देश का मोल भाव ।

Thursday, October 29, 2009

बकरा

बकरे ही किउन
होते हैं कुर्बान ?
जिसके न नुकीले पंजे हैं
न ही पैने दांत ।
यह पक्का है काटनेवाला
आँखों की भाषा नही समझता

और बकरा सिर्फ़ आँखों से बोलता है
कटने से पहले ।

किसी भी बकरे को
शहीदों की सूची में नही डाला जाता
बकरा जो ठहरा ।

आदमी तो आदमी
देवता भी खुश होतें हैं
बकरों की बलि से
वह रे देवता ।
हलाल करो या
झटका दो
तड़पना तो पड़ता है
दर्द तो होता है मरने में
जो काटता है उसे
दर्द का अहसास क्या ?
सोचता होगा
बकरा ही तो है
इसका तो जन्म ही हुआ है
कुर्बानी के लिए
बिना बलि
बिना कुर्बानी के
बकरा जीवन व्यर्थ है ।
कितने नसीब वाले होतें हैं
वे बकरे जो
बलि होते है
जो कुर्बान होतें हैं
देवताओं के लिए ।

ऐसी बात नही की
बकरे का सम्मान नही होता
खूब खिलाया जाता है
पूजा कर मंत्र पड़े जाते हैं
कलमें पड़ी जाती है
बलि से पहले
जैसे बकरा
समझता हो
यदि बकरा समझदार होता
तो घास थोड़े खाता ?
क्या अपने देखा किसी
इन्सान को घास खाते ?





Tuesday, October 27, 2009

वर्दी वालों की हवा

खाकी का डर

आज भी जारी है बदस्तूर

मरती हैं आज भी जनता सरेआम बेक़सूर ।

आज भी करते हैं उन्हें हम

जी हजूर - जी हजूर

आज है जनता मजबूर

पहले से अधिक ।

गोरों की गुलामी बेहतर थी

इस बदतर आज़ादी से

तब गुलामी का बहाना था

आज़ादी का क्या बहाना ?

वेरिफिकेशन , पासपोर्ट और सब

जो हैं उनके हाथों में

होता नही कुछ भी

विना रिश्वत के ।

धरती के देवता समझते ख़ुद को मेरे देश के

खाकी वाले ।

उन्हें आता है

जब कोई बेक़सूर असहाय होकर

मांगता है अपने प्राणों की भीख

उनके आगे हाथ जोड़कर ।

ले जाकर थाने उसे

करते हैं उसकी पिटाई

गुजरात , मुंबई और पूरा भारत

गवाह है

मेरे देश में वर्दी वालों की हवा है ।

मेरा जीवन

मेरा जीवन
हादसों का एक तालाब है
और मैं उसमें
एक मछली की तरह
तैर रहा हूँ ।
गीत कई गाएं हैं मैंने
किंतु
बिना सुर ताल के
मेरा जीवन हादसों का जाल है
हर कदम - हर साँस पर
संघर्ष की माया जाल है ।
चक्रवूह की तरह
मुझे हादसों ने घेरा है .

हे मनुष्यों के देवता

हे मनुष्यों के देवता
मैं तुम्हे स्वीकार नही करता
हो सकता है , शायद
मैं मनुष्य नही ।
या फिर
तुम्हारे अस्तित्व पर
मुझे यकीन नहीं
कारण कुछ भी हो
यह सच है
मैं नास्तिक हूँ ।
मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करता , किउंकि
मैंने देखा है तुम्हारे
मंदिरों के पायदानो पर
लोगों को मरते हुए ।
तुम तो रक्षक थे
सर्वशक्तिमान थे उनके लिए ?
किउन नहीं बचाया उन्हे
अकाल मृतु से ?
मरते किउन हैं
वो हजारों मासूम
जीने से पहले
पोषण की कमी से ?
तुम तो अन्न दाता हो उनके लिए ।

बम जो फटे
बाजार में
गुन्हेगार बचे किउन ?
बेक़सूर मरे किउन ?
तुम तो काल के बिनाशक हो
सवाल और भी हैं
तुम्हारे होने पर
तुम्हारी शक्ति पर
मेरी ओर से ।
मंदिरों पर नहीं केवल
मस्जिदों में भी
और
गिरजों में भी
तुम्हारे सजदे के वक्त
उडे चिथड़े तुम्हारे बन्दों के
खून से लथपथ शवों से
तुम्हारे इवादतगाह हुए नापाक
कैसे करोगे उन्हें पाक ?
इसीलिए मैं नास्तिक बन गया हूँ .

Monday, October 26, 2009

डायरी

मैं जिस डायरी में
लिख रहा हूँ
यह कविता
यह तुम्हरी है ।
इस डायरी की तरह , कभी
मैं भी
तुम्हारा हुआ करता था ।
आज न यह डायरी तुम्हारे पास है
और
न ही मैं तुम्हारे पास हूँ ।
इस डायरी को
जब छोड़ा था तुमने मेरे पास
खाली था इसका हर पन्ना
बिलकूल मेरी तरह ।
इस डायरी का हर पन्ना तो
मैंने भर दिया है
लिख -लिख कर कवितायेँ
किंतु
मैं आज भी खाली हूँ
बिलकूल पहले की तरह .

Sunday, October 25, 2009

मेरा घर

मैं जैसे जीता हूँ
कह नही सकता
लिख नही सकता
मैं कैसे जीता हूँ ।
मैं जिस घर में रहता हूँ
वह मेरा है
मैं ऐसा सोचता हूँ
वह घर नही सोचता ऐसा

मैं सोचता हूँ जैसा ।
वे सभी मेरे अपने हैं
जो उस घर में रहते हैं
मैं उनका अपना नही
बन सका आजतक
वह घर
जो दिवारओं घिरा है
वो दिवार
जो मूक हैं
सदिओं से
मैं भी मूक रहना चाहता हूँ
उसी तरह
कुछ भी कहना नही चाहता हूँ
उस घर के बारे में
किउंकि
वहां सब मेरे अपने हैं
जिस घर में मैं रहता हूँ
.

Tuesday, October 6, 2009

इन्सान समझ नही पता है

शाम को
आकाश में जब
सूरज ढलता है
याद दिलाता है कि
जीवन का सच क्या है
इन्सान तो बेकार ही
भाग रहा है
बिना किसी उद्देशेय के
उसे मालूम ही नही कि
उसे जाना कहाँ है
इन्सान को रोज
सिखाता है
आकाश का सूरज
इन्सान समझ नही पता है.

Saturday, October 3, 2009

बाज़ार से लायेंगे सांसें


मेरे देश में पीने को

पानी नही मिलता
किंतु
बिकता है यहाँ
पेप्सी और कोक
पानी बिकता है
बाज़ार में
किनले , बीबो और
बिसलेरी के नाम से
पानी कुदरत का है
किसने बेचा किसको
और
किसने ख़रीदा किससे
कौन पूछेगा ये सवाल किससे
आज पानी बिकता है
कल हवा बिकेगा
बाज़ार में

Wednesday, September 23, 2009

अभ्यास पुस्तिका

मै तुम्हारे साथ रहा
तुम्हारे जीवन में
किंतु
एक अभ्यासपुस्तिका की तरह
तुमने लिखा फिर
मिटाया
फिर लिखा
फिर मिटाया
अब
पुस्तिका फट गई है
पन्ने भी भर गए हैं
अब
तुम्हे एक
नई पुस्तिका चाहिए
पुनः अभ्यास के लिए /

Monday, September 21, 2009

जिसे कभी देखा था

मटमैले रूप में
सड़क के किनारे
जिसे कभी देखा था
सर्द मौसम में
जिसका तन आधा ढका था


उसका  पेट
पीठ सठा था
वह आया था
इस शहर में
काम की तलाश में
उस पर अपने
परिवार का बोझ था
उसे कोई काम नही देता था
उन्हें शक था ,
वो एक चोर है


मंदिरों में उसका प्रवेश
मना था क्योंकि
वह निम्न वर्ग का था


उसके चहरे पर
बेवसी का चित्रण था
कल की सर्द रात में
फूट पाथ पर सोते हुए
एक अमीर जादे ने
 जिसे कुचला
 वही गरीब था //

Sunday, September 20, 2009

तस्वीर

वो तस्वीर में मुस्कुरा रही थी

उस तस्वीर में

मै भी था उसके साथ

यह उस वक्त की तस्वीर है

जब हम रहते थे साथ -साथ

हँसते थे ,रोते थे

साथ -साथ

अब नही हँसते

अब नही रोते

नही रहते

साथ - साथ

सिर्फ़ उस तस्वीर में

रह गए हैं हम

साथ - साथ

वो खुश थे

मै खुश था

जब दोनों थे

साथ - साथ

वो तस्वीर , जो

गिरी अचानक

मेरी एक फाइल से

जिसे मैंने छुपा रखी थी ज़माने से

उस तस्वीर में उसने

मुझे पकड़ रखा है

वाहों में

कितनी मजबूती से

सिर्फ़ मुझे ही मालूम है

और उसे जिसने

मुझे पकड़ा है उन वाहों में

पता नही फिर कैसे छूटा

मैं उन वाहों से

मालूम नही क्या हुआ

किंतु

सच है

आज भी हम साथ हैं

सिर्फ़ उस तस्वीर में

जो गिरा था कल

जमीन पर

मेरे एक फाइल से .

सूखा रेत

तुम्हारे बाद
अब
मेरी भी सोच बदलने लगी है
अदालत में खड़ा
एक भाड़े की गवाह की तरह
पता नही, अब
मै कब क्या बोल जाऊँ
मै भी अब रुख बदलने लगा हूँ
मेरे शहर में चलती हवाओं की तरह।
रात के बाद
दिन भी कटता हूँ , मै
सोच बदल बदल कर
अब मेरा कोई भरोसा नही
जो था ,
टूट गया कांच की तरह
सोचा था पाषाण हूँ लेकिन
ख़ुद को पाया सूखे रेत की तरह
आज-कल टुकडों में जी रहा हूँ.

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...