Sunday, May 24, 2015

अपनी माटी से

मेरे गांव की हरियाली मुझमें समा गयी है
बहुत गाढ़ा है ये हरा रंग
मासी रोज लगा देती है मेरे गालो पर हल्दी 
तब -तब मैं खिल उठता हूँ
सुबह की तरह
खेत, पंछी , तालाब
और गांव की कच्ची सड़क उभर -उभर आते हैं
लिची का लाल रंग उतर आता है आँखों में
मैं आकाश को देखता हूँ
नीला हो जाता हूँ
रंगो का यह समागम
मुझे उल्लासित कर देता है
और तब मैं देखता हूँ क्षितिज पर डूबते सूरज को
झींगुर गाने लगता है
और मचलने लगते हैं जुगनू
सपने नहीं
अब एक नयी उम्मीद देखता हूँ
अपनी आँखों में।

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...