मानव सभ्यता के सबसे क्रूर समय में
जी रहे हैं हम
हमारा व्यवहार और हमारी भाषा
हद से ज्यादा असभ्य
और हिंसात्मक हो चुकी है
व्यक्ति पर हावी हो चुका है
उसका मैं
इस मैं पर
हमारा कोई बस नहीं है
मेरा मैं गालियां बकने लगा है
हत्या करता है
फिर भी शर्मिंदा नहीं होता किसी अपराध पर
मैं शर्मिंदा होना चाहता हूँ हर अपराध के बाद
किन्तु मेरे मैं का अहंकार इतना मगरूर हो चुका है
कि अपराध का अहसास होने पर भी
वह शर्मिंदा नहीं हो पाता
और तब भी बड़ी बेशर्मी के साथ
खुद को मनुष्य बताते हैं हम
इसी मैं ने ही
आपसी रिश्तों को शर्मसार किया है
यही मैं ही
इस सभ्यता के पतन का कारण बनेगा
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इक बूंद इंसानियत
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