Monday, December 28, 2015

जाते -जाते सूरज ने भी पढ़ा था मेरा चेहरा

आज तीसरे दिन का
तीसरा पहर भी बीतने को है
उदास सूरज पहुँच गया है क्षितिज पर
किन्तु खत्म नहीं हुआ
मेरा इंतज़ार 
जाते -जाते सूरज ने भी पढ़ा था मेरा चेहरा
और उदास हो गया था उसका चेहरा
पता नहीं कैसे भांप लिया था उसने
मेरे भीतर की उदासी
जबकि मैं मुस्कुरा रहा था लगातर
चलो बताओ तुम भी
मेरा चेहरा देखकर
कुछ पता चला तुम्हें !


Sunday, December 27, 2015

यूँ ही खाली बीता भीड़ में तनहा मेरा दिन आज

सोचता हूँ
कि मुक्त कर दूँ तुम्हें
अपने ख्यालों से
और खत्म हो जाए सभी डर
तुम्हारे मन से
दरअसल तुम समझ न पाओगे
कि यह डर तुम्हारा नहीं,
मेरा है...
और मैं नहीं चाहता कि ऐसे डर-डर के
हम मिले...
तुम्हें मुझ पर तरस आता है
किन्तु मुझे आती है तुम्हारी याद
यूँ ही खाली बीता भीड़ में तनहा मेरा दिन आज
मैं सोचता रहा चेहरा तुम्हारा
और मुस्कुरा उठा खुद ही भीड़ में
पता नहीं भीड़ ने क्या सोचा मेरे बारे में
पर मुझे लगा
कि आज याद नहीं किया
तुमने मुझे .........
यूँ ही .....
तुम्हारा कवि 

Thursday, December 17, 2015

तुम्हारे प्रेम के नशें में भी स्थिर हूँ

देर रात
मैं जब भी लिखता हूँ
कोई प्रेम कविता
लोग सोचते हैं
मैं नशें में होता हूँ
सुनो दोस्त,
लोग सही सोचते हैं
मैं उस वक्त
प्रेम के नशें में होता हूँ
दरअसल नशें में तो लोग भी हैं
और नशें में डूबे हर व्यक्ति को
हर कोई नशें में डूबा ही दीखता है
क्योंकि जब वह डोलता है नशें में
डोलती है धरती, डोलता है आसमान
देश में सत्ता के नशें में
हिल रहा है सब कुछ
किन्तु मैं,
तुम्हारे प्रेम के नशें में भी स्थिर हूँ इतना
कि लिख लेता हूँ
तुम्हारे लिए कविता
-तुम्हारा कवि

Wednesday, December 16, 2015

मैं देखना चाहता हूँ मुस्कुराहट तुम्हारे चेहरे पर

मैं सच कह रहा हूँ तुमसे
बहुत शर्मिंदा हूँ अपनी गलतियों पर
मैं देश की सरकार की तरह
बे-शर्म नहीं बना हूँ अभी
इसलिए तो कह रहा हूँ 
कि अब से कोशिश करूँगा
भूल से भी कोई भूल न हों मुझसे
न उदास हो तुम्हारा चेहरा मेरी किसी बात से
मुस्कान रहे चेहरे पर
जो मैं देखना चाहता हूँ हर पल
नहीं कर सकता मैं कोई झूठा वादा तुमसे
अभी मैं सरकार में नहीं हूँ
न ही विपक्ष की किसी पार्टी में
हाँ, मैं तुम्हारे साथ हूँ
यह तो मानना होगा तुम्हें
सुनो मेरे कमरे के फ़र्श पर नहीं है कोई कालीन
ठंड बहुत लगती है पैरों में
श्मशान पास ही है
पर अभी वक्त है मेरे जाने में
और जबतक नही जाता
मैं देखना चाहता हूँ मुस्कुराहट तुम्हारे चेहरे पर
बहुत कुछ किया है तुमने अबतक सबके लिए
मेरे लिए बस मुस्कुरा दो ....

Monday, December 14, 2015

प्रेम ही खुद में सबसे बड़ी क्रांति है

ख़ुशी लिखना चाहता था 
लिख दिया तुम्हारा नाम 
लिखना चाहता था 'क्रांति' 
और मैंने 'प्रेम' लिख दिया 
सदियों से 
प्रेम ही खुद में सबसे बड़ी क्रांति है ..

Tuesday, December 8, 2015

मैंने तुम्हें थाम लिया अंजुरी में

कवि जब रोता है
तब भी कविता होती है
तो, अब जब तुम भी जान चुकी हो ये बात
मैं बता देना चाहता  हूँ
कि मैं अक्सर सोचता हूँ तुम्हें
और तुम्हें सोचते हुए भर आती  है मेरी आँखें
क्या तुम देख पाती हो कोई कविता
मेरे अश्कों में !
मैंने धरती को अलविदा कहना चाहा
और तुम याद आ गयी तभी
मैंने आंसुओं को गिरने नहीं दिया धरती पर
मैंने तुम्हें थाम लिया अंजुरी में
और सौंप दिया सीप को
ताकि मोती बना सकूं

ठीक उस वक्त जब कवि
तड़प रहा था विरह में
प्रेयसी दीप सजा रही थी दिवाली के
कवि रोता रहा रात भर
कविताएँ बनती चली गयी
इस तरह कट गयी  रात

बाकी हैं अभी कई रातें
कवि रचेगा असंख्य कविताएँ
अपने अश्कों  से

- तुम्हारा कवि

Monday, December 7, 2015

हर रिश्ते पर संदेह होने लगा है हमें

यहाँ आदमी को आदमी से डर लगता है
और मैं रोज-रोज पढ़ रहा हूँ
मानव सभ्यता की कहानी
धरती पर मौजूद लगभग सभी प्राणियों का विश्वास 
खो दिया है हमने
अब मनुष्य खुद से डरा हुआ है
विश्वास के सभी पैमानों को फेंक कर
बहुत आगे निकल चुके हैं हम
इतना आगे कि, अब
हर रिश्ते पर संदेह होने लगा है हमें
और हमारे समाज के हर कोने में ,
हर ठेके पर,
मंदिरों में, स्कूलों में
लगा रहे हैं हम
'मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है' का पोस्टर
जबकि आज सभी जानते हैं
मानवता ही संदेह के घेरे में हैं
मैंने पूछा तम्हारा नाम
तो, नाम के बदले पूछा जाता है
नाम पूछने के पीछे का कारण
मानवता अब किताबों और दीवारों पर चिपक कर रह गयी है
जबकि उसके प्रेम ने मुझे अहसास कराया मेरे मनुष्य होने का
और मेरा संदेह उसी पर
मेरे भीतर का अमानव मरा नहीं अभी
कि कर सकूँ आँख मूंद कर तुम पर भरोसा
देखो आज भी कितना कमज़ोर हूँ मैं ......

Thursday, November 26, 2015

सत्ता नहीं समझेगी कभी प्रेम का उल्लास और विरह की पीड़ा

कठोर से कठोर हो रहा है समय
और तुम गुज़र रहे हो कठिन संघर्ष से पल-पल
और तुम्हारी पीड़ा से गुज़र रहा हूँ मैं
सत्ता को न अहसास है न ख़बर
सोचना होगा हमें मिलकर 
इस पीड़ा से मुक्ति का मार्ग
और इसलिए मैं लगातर सोच रहा हूँ तुम्हें
और लिख रहा हूँ
रोज एक प्रेम कविता
तुम्हारे लिए
मेरी अनुपस्थिति में रोज पढ़ना तुम
इन्हें
सत्ता नहीं समझेगी कभी
प्रेम का उल्लास
और विरह की पीड़ा
याद रखना
-तुम्हारा कवि 

चित्र : गूगल  से साभार  


Wednesday, November 25, 2015

आदमी जब जरुरत की वस्तु में बदल जाता है

आदमी जब जरुरत की वस्तु में बदल जाता है
जरुरत के बने रहने तक ही
वह रहता है सार्थक
जरूरत की समाप्ति के साथ
हो जाता है निरर्थक
इतना असहाय बना दिया जाता है
कि, उसके मुह पर कहा जा सकता है
खत्म हो चुकी है उसकी जरूरत
कचरे के किसी डिब्बे में
कूड़े के ढेर में पड़ा किसी बेकार वस्तु की तरह

विज्ञान की तरक्की के साथ
हमने सीख लिया है
कचरे से खाद, ईंधन और अन्य उपयोगी वस्तु बनाना
पर अभी तक हम खोज नहीं पाए हैं
ऐसी कोई तकनीक
जिससे बना सके
जरूरत के बाद ठुकराए आदमी को उपयोगी बनाना ...
और ऐसे में खो जाता है अंधकार में  
एक व्यक्ति !

..तुम्हारा कवि

Monday, November 23, 2015

अवसाद के अँधेरे में गुम हो जाता है खिलौना

अख़बारों का एक ढेर
कमरे के कोने में है
और उसी कमरे में
एक पुरानी चारपाई पर पड़ा है
बीमार एक वृद्ध 
कमरे के बाहर जो बड़ा सा मकान है
जिसे सब लोग घर कहते हैं
उन्हें कोई खबर नहीं उस अकेले कमरे की
अख़बार के ढेर में दब कर दम तोड़ रही हैं पुरानी खबरें
और वह वृद्ध

क्या अंतर है
अख़बार के पुरानी खबर में
और तन्हा उस बूढ़े में !
जबकि कमरे के बाहर लगातर हलचल है
तनहाई न सुनाई देती है
न दिखाई देती है
समय के साथ बड़ा होता है शिशु
और भूलता जाता है
अपने खिलौनों को
जिनसे वह दिल बहलाता है
और अवसाद के अँधेरे में गुम हो जाता है खिलौना !
यह किस्सा कहानी तक सीमित नहीं रहता |


Saturday, November 21, 2015

आकार बदलने लगे हैं पत्थर

समय के प्रभाव में 
आकार बदलने लगे हैं पत्थर
गोल -गोल पत्थर 
अब नुकीले हो रहे हैं ......
ये नुकीले  पत्थर  उठेंगे हाथों  में 
शोषण के  विरुद्ध  
न्याय  के पक्ष  में 
एक दिन  !

Wednesday, November 18, 2015

बहुत वीरान समय है

बहुत वीरान समय है
और ऐसे में तुम भी नहीं हो यहाँ
राजा निरंकुश है
बहुत क्रूर है
और मैं लिखना चाहता हूँ
हमारी प्रेम कहानी
तुम कहो -
क्या लिखूं - अंत,
मिलन या मौत !
राजा मौत चाहता है हमारी
और मैं चाहता हूँ मिलन !
राजा रूठे तो रूठे
तुम न रूठना कभी ...
-तुम्हारा कवि


Sunday, November 15, 2015

मैं अपने पापों की पोटली ढो रहा हूँ नदी किनारे

ट्रेन पहुंच चुकी है गंतव्य पर
मुसाफ़िर के साथ
रात के आकाश पर फ़ैल गया है अंधकार
उदासी में खो गया चाँद
मैं अपने पापों की पोटली ढो रहा हूँ नदी किनारे 
गंगा भीग चुकी हैं
अपने ही आंसुओं में
मैं रात भर सो नहीं पाया
तुमसे लड़ने के बाद
आओ मिल जाएँ हम फिर से
तुम सागर बन जाओ
मैं नदी बन जाऊंगा ...
इंतज़ार में..

चित्र : गूगल से साभार |

Saturday, November 14, 2015

कितना आज़ाद था मैं

लिंगमपल्ली के उस छोटे से रेलवे स्टेशन के ठीक बाहर
राम प्रसाद दुबे कालोनी में
एक दस बाई दस के कमरे में
कितना आज़ाद था मैं
मखदूम मोहिउद्दीन के शहर हैदराबाद में
खुश था मेरे भीतर का कवि
ग़ालिब तुम्हारे तलाश में
ये कहाँ आगया मैं दिल्ली में !
हर तरफ घुटन है
नफ़रत है
प्रेम नहीं तेरे शरह में अब
इर्ष्या फ़ैल चुकी है हवाओं में
घुट रही है मेरी सांसे
जबकि मैं आया था जिन्दगी की तलाश में यहाँ
ओ शहर ..
याद करो तुमने आखरी बार
कब किया था किसी का स्वागत
बाहें फैलाकर !
तुम्हारे फुटपाथों पर
जो अनगिनत क़दमों के निशान हैं
वहां खोज रहा हूँ
मैं लौट जाने का रास्ता .....
-तुम्हारा कवि

Friday, November 6, 2015

इन्कलाब ज़ारी रहे

आदिवासी जंगल से खदेड़े गए
किसान जमीन से बेदखल हुए
मज़दूर को बना दिया अपंग
मछुआरों से छीन लिया जाल और समन्दर
पहाड़ पर चढ़ गए टाटा, अडानी/ अम्बानी और जिंदल
अब बाकी बचे नागरिकों से देश छिना जा रहा है .
ज़मीन की लड़ाई लम्बी होती है साथियों....|
इन्कलाब ज़ारी रहे ......

चित्र : गूगल  से  साभार 

Sunday, November 1, 2015

तुम्हारा कवि

हर रात सुनता हूँ
किसी की सिसकियाँ
खोजता हूँ उसे
दीखता नहीं कोई अँधेरे में
तब मैं आईना देखता हूँ......
यूँ ही
तुम्हारा कवि



Wednesday, October 28, 2015

सबसे गहरी होती है आँखों की उदासी

तुम्हारी उदास आँखों में
जो अनकही कहानी है
सुनना कभी मुझे
एकांत में,
उदासी की भाषा बहुत कठिन है 
और सबसे गहरी होती है
आँखों की उदासी |
...तुम्हारा कवि 

Tuesday, October 27, 2015

बेचैन थी नदी

नदी पार करते हुए
मैं सोच रहा था तुम्हें
बेचैन थी नदी
और उदास था मैं
उम्मीद है
तुम समझोगी वो अनकही
-तुम्हारा कवि ...
____________
चित्र : गूगल  से साभार 


Sunday, October 25, 2015

यूँ ही तुम्हें सोचते हुए

तुम्हारी आँखों की भाषा
पढ़ तो लेता हूँ
पर ,नहीं कर पाता मैं अनुवाद !
समझ न आये
तो, झाँक लेना तुम भी 
मेरी आँखों में कभी ........
यूँ ही तुम्हें सोचते हुए ........


Monday, October 19, 2015

तुम्हारी आँखों की उदासी अब मेरी आँखों में है

आज तुमसे विदा लेते वक्त
फिर भर आयीं मेरी आखें
तुम्हारे आने की ख़ुशी में भी
यही हाल था मेरा
मैं तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा करूँगा |
तुम्हारी आँखों की उदासी
अब मेरी आँखों में है ......

Thursday, October 15, 2015

तुम्हारी व्यथा की कहानी

तुम्हारी व्यथा की कहानी
मैंने रात भर
नदी को सुनाई,
नदी राह बदल कर
मेरी आँखों में
आ गयी ...
-सिर्फ तुम्हारा
एक कवि


Tuesday, October 13, 2015

मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ

हत्याओं के इस दौर में
मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ
जैसे तुम चाहती हो
मतलब जैसे हम दोनों चाहते हैं
किन्तु एक दिक्कत है !
हम दोनों की चाहतों के बीच
आ जाती हैं
विश्व की सबसे प्राचीन परम्परा,
संस्कृति, और पता नहीं क्या -क्या
आजकल आ रहा है 'आदित्यनाथ', गिरिराज, प्रज्ञा,
रामसेना, बजरंगी...... मौलानाओं की भीड़
खाप तैयार बैठा है पंचायत सजा कर
फांसी के फंदे और बंदूक के साथ
और सबसे आगे हैं ...
हमारे माँ-बाप , बहन का भाई
जो चुपके से करता है प्यार किसी से
बस उसे पसंद नहीं .... किसी और का प्यार करना !
अब बोलो ....मेरी जान
क्या करें ....
प्यार करें
या समझौता !

Friday, October 9, 2015

क्या तुझे शर्म नहीं आयी !

दनकौर में,
मादरे हिन्द की बेटी को 
नग्न किया गया 
उस रात फिर
खूब रोए 'नागा बाबा'
बाबा ने मुझसे कहा -
देख रे -बेरोजगार ग्रेजुएट
इसी देश में आया था बुद्ध भटककर
कबीर भी
और फिर आया था
फ़कीर संत गाँधी
आज सभी रोए रात भर
देखने वाले देखते रहे -बे-शर्म
और मैं देता रहा खुद को तस्सली
कि, अब नहीं रहा इस देश में
मेरी गालियाँ भी अब हो चुकी है बेअसर
चल तू बता -
क्या सच में नहीं बदल पाए इस देश को
जिसे - हिन्दोस्तान कहते हैं !
देख , आज भी मादरे हिन्द की बेटी असहाय नग्न घूम रही है
तेरी जमीन पर ....
हिल उठी है मेरी आत्मा
क्या तुझे शर्म नहीं आयी !
या डरता है मरने से !

___________

चित्र : गूगल  से  साभार 


Friday, October 2, 2015

ऐसे समय में जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है

यह हमारे दौर का 
सबसे खूंखार समय है
हत्या बहुत मामूली घटना है इनदिनों
ऐसे समय में
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है
मैं बेखौफ़ होकर
लिख रहा हूँ
प्रेम कविताएँ
तुम्हारे लिए |


----------------------

मैं बदनाम होना चाहता हूँ 
हाँ, मैं बदनाम होना चाहता हूँ
बहुत ज्यादा,जितना अब तक हूँ
उससे भी ज्यादा,
उन गलियों से भी जियादा
जहाँ गुजार देते हैं कई -कई रात 
सभ्य समाज के सभी ठेकेदार
जिनकी आधी रात बीतती हैं
उन्हीं बदनाम गलियों में

और हाँ सुनो -
मुझे शिकायत तुमसे नहीं
खुद से है ||

Sunday, September 27, 2015

संसद भवन की सीड़ियों पर माथा टेक कर बन सकते हैं आप

तमाम अपराधों के बाद
वे गाएंगे
जन-गण-मन
वंदेमातरम्
और बन कहलाएंगे राष्ट्रवादी

जो कोई बोलेगा
गरीब, आदिवासी, अल्पसंख्यक
और दलितों पर हुए अत्याचारों के बारे में
कहलाएंगे  गद्दार
संसद भवन की सीड़ियों पर माथा टेक कर
बन सकते हैं आप
देशभक्त

विदर्भ, कालाहांडी या कोई और हिस्सा देश का
जहाँ रोज मरने को विवश हैं लोग
उनकी बात न करना
बहुत महंगा पड़ेगा तुम्हें
ये देश  हमारा नहीं
राष्ट्रवादियों का  है




Saturday, September 26, 2015

पानी की गहराई का अंदाजा नहीं था उन्हें

पानी की गहराई का अंदाजा नहीं था उन्हें
वे धकेलना जानते थे
डूबता हुआ व्यक्ति लड़ता है
सांसों से जंग
निपूर्ण तैराक ही पा लेता है फ़तेह
बाकी सब डूब ही जाते हैं
गोताखोर कूद जाते हैं पानी में
पूरी तैयारी के साथ
तल से उठा लाते हैं लाश
सांसों से उसकी संघर्ष की कहानी कोई नहीं जान पाता
धकेलने वाला शायद ही शर्मसार होता हो
देखकर उसे
वह तसल्ली देता है मन को
और सोचता है
उसने तो दिल्लगी की थी
यह तो मरने वाले की गलती थी
जो तैरना नहीं जानता था ||

Thursday, September 24, 2015

पता नहीं कितना बचा हूँ अब

मैं मिट रहा हूँ 
पल-पल
पता नहीं कितना बचा हूँ अब
कल रात ही मिटा दिया 
मैंने उन रातों को 
जो हमने गुजारी साथ-साथ
चाँद गवाह है
कि मैंने नहीं किया कोई फ़रेब तुम्हारे साथ
बस आ गया था अमावस हमारे बीच
जिसे तुमने मेरा धोखा समझा ||



Wednesday, September 23, 2015

तुम्हें अलविदा कहते समय

तुम्हें अलविदा कहते समय
छोड़कर जाने को बहुत कुछ होगा मेरे पास
मैं सिर्फ ले जाऊंगा
मेरे सबसे कठिन समय में
साथ खड़े होके
मेरे पक्ष में कहे हुए
तुम्हारे शब्दों को ....
अपने साथ

चित्र : गूगल से साभार

Monday, September 7, 2015

हर सच को अपनी आलोचना मानती हैं सत्ता

हम सच बोलेंगे
और क़त्ल कर दिए जाएंगे
सत्ता डरती है सच से
हर सच को अपनी आलोचना मानती हैं सत्ता
हम भूले नहीं हैं
सुकरात को
उसके ज़हर के प्याले में
मिला दिया गया था हमारे हिस्से का ज़हर भी
सत्ता नहीं जानती
ज़हर से व्यक्ति मरता है
सच नहीं ||

Thursday, June 18, 2015

तुम्हारी मीठी मुस्कान आज भी चिपकी हुई है मेरी आँखों पर

इनदिनों,
अपने खालीपन में
मैं अक्सर खोजता हूँ तुम्हें अपने आस-पास
और याद करता हूँ अतीत के सुहाने पलो को
तुम्हारी मीठी मुस्कान
आज भी चिपकी हुई है मेरी आँखों पर
हाँ , अब मेरी आँखें जरुर कमज़ोर हो चुकी है
इतना कमज़ोर कि 

अब मैं देख नहीं पाता हूँ साफ़ -साफ़
इन्द्रधनुष के रंगों को भी ||

Friday, June 12, 2015

ओ अमलतास

मैं उदासी चाहता हूँ
और तुम ऐसा होने नहीं देते
जीत जाते हो हर बार
तुम्हारा क्या करूँ मैं ?

ओ अमलतास !

Sunday, May 24, 2015

अपनी माटी से

मेरे गांव की हरियाली मुझमें समा गयी है
बहुत गाढ़ा है ये हरा रंग
मासी रोज लगा देती है मेरे गालो पर हल्दी 
तब -तब मैं खिल उठता हूँ
सुबह की तरह
खेत, पंछी , तालाब
और गांव की कच्ची सड़क उभर -उभर आते हैं
लिची का लाल रंग उतर आता है आँखों में
मैं आकाश को देखता हूँ
नीला हो जाता हूँ
रंगो का यह समागम
मुझे उल्लासित कर देता है
और तब मैं देखता हूँ क्षितिज पर डूबते सूरज को
झींगुर गाने लगता है
और मचलने लगते हैं जुगनू
सपने नहीं
अब एक नयी उम्मीद देखता हूँ
अपनी आँखों में।

Wednesday, March 18, 2015

इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या'

आत्महत्या पर लिखी गयी
तमाम कविताओं को पढ़कर देखा
कुरेद डाले मैंने सारे लेख
बहस -बहस गुजर कर देखा
पर उस पीड़ा का नहीं हुआ अहसास 


आत्महत्या महज़ एक शब्द नहीं है
जिसे लिख देने भर से
या सुन लेने भर से हम अहसास कर पाए उस पीड़ा को
चाहे हो फांसी का फंदा
या आग की लपटें हों
इसकी पीड़ा का अनुभव तो उस तक ही सीमित रहता है
जो मरता है लटककर
या जलकर
या किसी और माध्यम से

दर्द का कुछ हिस्सा छोड़ जाता है
वह अपने परिजनों के लिए
वे भुगतते हैं इसे उमर भर !
इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या'
कि खत्म हो जाए किसी कविता
या लेख
या किसी बहस का हिस्सा बनकर

बहुत संघर्ष करना पड़ता है खुद से
इस निर्णय के लेने के पहले और उसके बाद
कितने विचार और कितनों का ख्याल आता होगा सोचिए
यदि वह कोई पिता है
तो बार -बार सोचता होगा
कि क्या होगा उसकी किशोर बेटी का भविष्य
कैसे जियेगी उसकी पत्नी जिसने बीता दिए
कई बसंत अपने जीवन के उसके पतझड़ के साये में !
और जवान बेटा सोचता होगा बार -बार
अपनी बूढ़ी माँ, बहन और दोस्तों के बारे में

दरअसल हम अक्सर नहीं गुजर पातें हैं
इन सब दर्दों से ,
इतना सहज नहीं है 'आत्महत्या' !!

Thursday, March 12, 2015

সব হারিয়ে যাবে এক দিন


'সব হারিয়ে যাবে এক দিন 
অহংকার ভাঙবে এক দিন 
থাকবে নদী , 
মাঝি চলে যাবে 
মরবেনা ঢেউ 
পড়ে থাকবে জাল ছিন্ন -ভিন্ন হয়ে 
জেলে চলে যাবে
তেল ফুরিয়ে যাবে 
নিভে যাবে প্রদীপ 
অন্ধকার  রাজত্ব করবে 
শিকারী আবার আসবে
পাখিরা নিরবে গাইবে 
বেদনার গীত 
তখন শুধু বেঁচে থাকবে 
একটি আশা আমাদের বুকে

Wednesday, February 11, 2015

आसान नहीं मिटा देना

वे भूल जाना चाहते थे मुझे
पर कैसे !
इस कठिन प्रश्न से जूझते हुए
सबसे पहले उन्होंने जला डाली मेरी सारी तस्वीरें
फाड़ दिए डायरी के सभी पन्ने
जिनमें लिखा था मेरा नाम
ढक दिया हर उस कोने को
जहाँ मौजूद थे 

मेरे होने का अहसास 

अब उन्हें कुछ -कुछ सफलता का अहसास होने लगा था
फिर आश्वस्त होकर ली उन्होंने लम्बी सांस
और व्यर्थ हो गया सब कुछ !
अचानक
देखा उन्होंने आईना
उनकी आँखों के पानी में
मैं अब भी तैर रहा था !!

Thursday, January 22, 2015

शर्मिंदा नहीं होता सपने में प्रेम करते हुए

मैं अक्सर खो जाता हूँ सपनों में
और कमाल यह होता है कि ये सपने मेरे नहीं होते
दरअसल सपनों में खो जाना कोई कला नहीं
न ही है कोई साज़िस
ये अवचेतन क्रिया है एक

मेरे सपनों में अचानक
उनका आगमन  बहुत सुखद है
मैं बहुत खुश होता हूँ उन्हें पाकर
सपनों में,
रेत पर खेलते उस बच्चे की तरह मैं भूल जाता हूँ
हक़ीकत को
और गढ़ता हूँ  प्रेम की हवाई दुनियां
एकदम फ़िल्मी

अभी यह सर्द मौसम है
रजाई की गर्मी में सपने भी हो जाते हैं गर्म और मखमल

 सपने में अचानक लगती है मुझे  प्यास
और फिर बोतल मुंह से लगाकर पीते हुए पानी
गिरता है सीने पर
टूट जाती है नींद

मैं हँसता हूँ खुद पर
पर शर्मिंदा नहीं होता
सपने में प्रेम करते हुए .

Tuesday, January 13, 2015

हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं

मैंने गुनाह किया
जो अपना दर्द तुमसे साझा किया

अब शर्मिंदा हूँ इस कदर
कोई दवा नहीं

मुझ पर इतराने वाले अब कतराने लगे हैं
हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं

बातें अंदर की थीं
अब बाहर आने लगी हैं

Thursday, January 1, 2015

हमें भ्रम हैं कि हम जिंदा हैं आज भी

आकाश पर काले बादलों का एक झुंड है
बिजली कड़क रही है
धरती पर आग बरसेगी
इस बात अनजान हम सब
डूबे हुये हैं घमंड के उन्माद में
हम अपना -अपना पताका उठाये
चल पड़े हैं
विजय किले की ओर

वहीँ ठीक उस किले के बाहर
बच्चों का एक झुंड
हाथ फैलाये खड़ा है
हमने उन्हें देखा बारी -बारी
और दूरी बना रखी
कि उनके मैले हाथों के स्पर्श से
गन्दे न हों हमारे वस्त्र
उनके दुःख की लकीर कहीं छू न लें
हमारे माथे की किसी लकीर को
हमने अपने -अपने संगठन के बारे में सोचा
सोचा उसके नाम और उद्देश्य के बारे में
हमें कोई शर्म नहीं आयीं

हमने झांक कर भी नहीं देखा अपने भीतर
हमारा  ज़मीर मर चुका  है
और हमें भ्रम हैं कि
हम जिंदा हैं आज भी ..??

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...