Wednesday, June 24, 2020

चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है

उन लोगों का कहना है
सब ठीक होगा
उम्मीद की इस दवा की
वैधता कितनी बची है अब
आखिरी रात कब सोये गहरी नींद याद नहीं
सुबह का इंतज़ार रहता इनदिनों
सपनों ने आत्महत्या कर ली है
बारिश के बाद छाता भी तो बोझ लगता है
मेरी भाषा भी अब
संक्रमित हो चुकी है
सभ्यता की उम्मीद बेकार है
इस दौर में भी खुश हैं जो लोग
उन्हें देख कर हंस लेना भी अब छल लगता है
भोजन की खुशबू से पेट नहीं भरता
और मजदूर जीना चाहता है
इस चाहत पर भी दिक्कत है उनको
इस चाहत को भी तो लालच कहा है आपने
आपकी बातों से
उसकी भूख नहीं मिटती
संतुलन अब कहीं नहीं है
मौत भारी है जीवन पर
चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है
आँखों में झांक कर देखा है कभी आपने ?
आँखों की भाषा सबको नहीं आती है

2 comments:

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