Wednesday, July 17, 2019

जिन्दा रहने के लिए राष्ट्र प्रेम अब अनिवार्य शर्त है !

बरसात हुई है
कुछ खतपतवार तो उगेंगे
कविता के नाम पर
खेत की सफाई के लिए
तैयारी जरुरी है
कवि से पहले
एक बार किसान बनिए
प्यासी धरती के सीने पर पड़ी दरारों को
मिटते देखिये
वर्षों से उदास झुर्रियों वाले बूढ़े किसान के
चेहरे को देखिये
कोई फ़र्क आया क्या ?
सूखे और बरसात के अंतर को समझने के लिए
कवि से अधिक एक किसान का होना होता है
किसान को कवि होते हुए कब देखा , माना है हमने !
जबकि उसके सृजन में ही जीवन का सार है
किसान न सही आप उसे खेतिहर मजदूर ही मान लीजिये
तब शायद कुछ अहसास हो जाए
कि हर बरसात केवल प्रेम कविता के लिए नहीं होती
संघर्ष की एक लम्बी प्रतीक्षा होती है
अवसाद और संघर्ष के सवाल
पानी से नहीं धुलते
प्रेम केवल बरसात में नहीं पलता !
और वैसे भी आज प्रेम के नाम पर
राष्ट्र प्रेम पहली अनिवार्य शर्त बन चुकी है
राष्ट्र जब नागरिक से आगे निकल जाता है
तब प्रेम बचता कहां है
सोच कर देखिये
सिर्फ प्रेमी होने से आप हिंसा के शिकार हो सकते हैं
क्योंकि इस कथित सभ्य समाज में
प्रेम से पहले जाति , धर्म और समुदाय को मान्यता दी जाती है
जाति है कि जाती नहीं
धर्म पीछा छोड़ता नहीं
समाज मान्यता देता नहीं
फिर सत्ता कहती है
किसान निजी प्रेम के कारण मरा है
राज सत्ता या सरकारी पालिसी का कोई हाथ नहीं है
मने साफ़ है कि
सिर्फ प्रेम अब दुःख या मौत का कारण हो गया है
जिन्दा रहने के लिए
राष्ट्र प्रेम अब अनिवार्य शर्त है !

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