शहर के बीचों -बीच
तन्हा खड़े
खंडहर की दीवारों पर
खुदे हुए हजारों नामों के बीच
मैंने कभी नहीं खोजा
अपना नाम
यूं भी कभी
हिम्मत नहीं कर पाया , कि
पत्थरों पर लिखुँ
मैं अपना नाम
जब लिख नहीं पाया
कभी किसी दिल पर /
पत्थर तो सह लेगा
हर दर्द को
दिल कहाँ सह पायेगा
नुकीले चुभन की पीड़ा ?
बेजुबान खंडहर की दीवारें
चीखेगी नहीं कभी
किन्तु अहसास है मुझे
चुभन की पीड़ा की /
मेरे भी दिल पर कभी
लिखा था किसी ने
अपना नाम
एक लम्बी रेखा खींच कर
आज कह नहीं सकता यकीन से
कि -उसे याद है
उनका नाम मेरे दिल पर खुदा हुआ
किन्तु-
बहते लहू धारा का निशां
आज भी बाकी है
मेरे दिल पर //
हिम्मत नहीं कर पाया , कि
ReplyDeleteपत्थरों पर लिखुँ
मैं अपना नाम
जब लिख नहीं पाया
कभी किसी दिल पर /
किसी पर जबर्दस्ती छाप डालने की कोशिश बुरी बात है... पर प्यार में ऐसा हो सकता है.. अच्छे अर्थ हैं इस कविता के;;;
ReplyDeleteKafi gehrai se apne pyaar ka use kia n sachai b dikhai... Nice one sir:-)
ReplyDeletekaphi acchi kavitha hai. badhai
ReplyDeleteThank u bhaiya
ReplyDelete.
ReplyDeleteअति सुन्दर , बधाई स्वीकारें.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें.
समय- समय पर मिले आपके स्नेह, शुभकामनाओं तथा समर्थन का आभारी हूँ.
ReplyDeleteप्रकाश पर्व( दीपावली ) की आप तथा आप के परिजनों को मंगल कामनाएं.
आपको भी ............. इसे आपका आशीर्वाद मानूंगा
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