अब कभी -कभी मैं
सूरज को सोचता हूं
उसके अकेलेपन को सोचता हूं
उसकी जलन की पीड़ा को सोचता हूं
कैसे सह रहा है वह
इस जलन को सदियों से
ख़ामोशी से ?
निथर हो कर
मैं यह सोचता हूं .
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
aap likhte hai kuch aisa ki... ham bahut khoob kahne ke shiva kuch kah bhi nahi sakta hoo...
ReplyDeleteबहुत गहरी बात कही आपने /
ReplyDeleteपाठकों के सामने एक प्रश्न वाचक छोड़ दिया आपने /
हमें भी सूर्य की तरह तपना चाहिए
शायद ये जलन और ख़ामोशी ही इस सूरज की पहचान है नित्य भैया ...
ReplyDeleteसौरव
khud kast utha kar,
ReplyDeletedusroN ki madad karna,
suraj ka khud jal kar,
dusroN ko raushani dena,
donoN ka aanand apaar,
kahta logoN ko samjha dena.
its nice ....
ReplyDeleteअच्छी कविता है, सूरज के साथ हमारे सनातन रिश्ते को आत्मीयता से देखने का यह अंदाज कवि की संवेदनशीलता का अंतरंग परिचय देता है। बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता. गहन विचार भी गहरी संवेदना भी.
ReplyDeleteचला जाता हूँ कुछ सोचते हुए...?
ReplyDeleteकि हुआ क्या था जो ये हुआ...
सपना जो टूट गया,कि राह एकदम से रुक गयी,कि सब कुछ ठहर गया....
लेकिन ये अंत नही है...चलना है मुझे अभी ...
वो पाना है जो कभी सोचा था....और ना रुका था मै ना रुकुंगा मै.....
क्योंकि मै परिवर्तन हूँ मुझे तो होना ही है ....
areee bahut khub
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