जो लिप्त हैं अपराधों से
बन बैठे हैं बाबा
पूरे देश में चल रही है
इन्ही बाबाओं की हवा
जिस जंगल में रहते हो
लकड़ी - महुया बीनते हो
अब बिनेगे खाक
किउंकि --
तुम्हारे जंगल पर मंडरा रहे हैं
नेताजी के काक
इसीलिए अब तो
मत रहो अवाक्
जंगल तुमसे ले लेंगे
एक कागज़ पर
आरक्षण तुम्हें दे - देंगे
जंगल में क्या करोगे
भूखे पेट मरोगे
जल्दी - जल्दी शहर में आओ
यहाँ आकर भीड़ बढाओ
ठेकेदार के सामने हाथ फैलाओ
भीख तुम्हें वह दे देगा
इज्ज़त तुम्हारी लेलेगा
फिर नेता जी आयेंगे
संवेदना जताएंगे
आश्वासन देकर जायेंगे इंसाफ का
तुमसे वोट मांगेंगे
दे दिया तो टिकोगे
नही दिया तो पिटोगे
इसी तरह से मिटोगे ?
Wednesday, December 8, 2010
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युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
जल्दी - जल्दी शहर में आओ
ReplyDeleteयहाँ आकर भीड़ बढाओ
ठेकेदार के सामने हाथ फैलाओ
भीख तुम्हें वह दे देगा
इज्ज़त तुम्हारी लेलेगा
फिर नेता जी आयेंगे......//
बहुत सुंदर एक सटीक व्यंग
this a true fact :-)
ReplyDeletebilkul saNch hai. Bahoot sahi aur sundar kavita. Rajniti ko ghate ka sauda banaye bina koi sudhar nahi hoga.
ReplyDeleteये कटाक्ष हमारे भ्रष्ट नेताओं और आम जनता पर काफी सटीक प्रतीत हो रहा है| इस विचार को हमे हर नागरिक तक पहुँचाना चाहिए |
ReplyDelete- कुमार सौरव
इस कविता को किसी नेता को मेल करो सिर जी...इस कविता की ज़रूरत आज पूरे भारत तक पहुचने की है...
ReplyDeleteयूँ ही जारी रखिये लिखना! अच्छा लगा!! अपनी मन की लिख कहाँ पाता कोई, जब बंदिशें हो लिखने की भाषा पर उसके विषय पर और तो और जब कहा जाये कि यही लिखना है. आजकल के लिखने वालों ने रोटी की खातिर बेच दी लेखिनी. अब तो गेहूं की चाह में गुलाब की खेती ही समाप्त हो गयी और इसीलिए न कोई सूर पैदा होता न ही कबीर, न तुलसी पैदा होता न रहीम. अब तो चरण-भाट ही पैदा हो रहे हैं ज्यादातर, जो पुरष्कार की चाहत में आज के राजाओं के दरबारी या फिर गुलामी मानसिकता से ग्रस्त हो बड़ी से बड़ी शक्तियों का महिमा गान करने में ही वक्त जाया कर रहे हैं. अब मंच के कवि मिलते हैं विचार के नहीं. हास्य के कवि मिलते हैं राष्ट्र के नहीं. अब भूख को कौन लिखता है, भिखारी को कौन लिखता है, भारत का गान कौन करता है, अब तो इंडिया प्यारा है, ऊंची ऊंची इमारतें प्यारी है, बड़े बड़े मॉल प्यारे हैं. कभी अखबारों के माध्यम से खबरें मिल जाती थी सोमालिया की, परन्तु भारत में हर रोज़ ही नया सोमालिया जन्मा ले रहा है कहाँ लिखता है कोई? भूख बीमारी और बेकारी तो जैसे लेखकों और कवियों के शब्द कोष में अब है ही नहीं. इस इलेक्ट्रोनिक मीडिया के युग में दरअसल वेबसी को क्यों कर बनाये कोई अपना विषय. माल बिकेगा ही नहीं तो क्यों बनाया जाये. बाज़ार प्रेरित हो गया है सबकुछ . इसलिए आप धन्यवाद के पात्र हैं लेखन के इस अंध युग में.
ReplyDeleteReality is so
ReplyDeleteReality will be so
This Will happen ?
This Country needs leader. But nobody leads, Only Fill there Swiss banks
Yet Hope does not leave us.
i like it sir...
ReplyDeleteजन पीड़ा की सार्थक और जरूर अभिव्यक्ति... कविता आम जन की आवाज बने, यह जरूरी है और यही इसका मकसद भी.... इस प्रयास को जारी रखें मित्र...
ReplyDeleteअच्छी फोलोवेर लिस्ट है आपके पास, आपकी कविता को गंभीरता से लोग ले रहे हैं बधाई ...लगे रहें यूँ ही अनथक
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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