Saturday, January 12, 2013

१९९६ में लिखी एक कविता


हम खो देंगे 
अपनी पहचान 
हमसे अधिक उन्हें भय है 
इस बात का 

हमारे मैले वस्त्र 
मैले तन 
उन्हें हौसला देते हैं 
हमें गाली देने का
चोर और नीच कहने का

हमारे पूर्वजों ने
हमें मजबूर किया गिडगिडाने को
मंदिरोंके पत्थर के आगे
जिन्हें उन्होंने ईश्वर कहा
और उम्मीद लगाई न्याय की

आओ उठाये हम
एक -एक पत्थर
पत्थर तोड़ने के लिए ...

No comments:

Post a Comment

युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....

. 1.   मैं युद्ध का  समर्थक नहीं हूं  लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी  और अन्याय के खिलाफ हो  युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो  जनांदोलन से...