Monday, February 10, 2014

काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना

दिनभर की थकान के बाद 
जब घुसता हूँ 
अपने दस -बाई -दस के कमरे में 
फिर मांजता हूँ बर्तन 
और गूंथने लगता हूँ आटा 
सोचता हूँ 
रोटी के बारे में 
तब यादे आते हैं कई चेहरे 
जिन्हें देखा था खोदते हुए सड़क 
या रंगते हुए आलिशान भवन 
तब और भी बढ़ जाती है
मेरी थकान
और मैं सोचता हूँ
उनकी रोटी के बारे में

जी चाहता है
बुला लूं एक रोज उन सबको
और अपने हाथों से बना कर खिलाऊ
गरम -गरम रोटियां

काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना
उस  दिन मैं सबसे खुश होता इस देश में .

1 comment:

  1. jitna hai aur jitno ko khila skte hn utna hi karte hain sbka pet jo bhr skta hai wahi wimukh ho gya hai to hm kitna kya kar sakte hain?

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