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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
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वे सारे रंग जो साँझ के वक्त फैले हुए थे क्षितिज पर मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में तुम्हारे लिए वर्षों से किताब के बीच में रख...
शहरी मेहमानों के प्रति चिंता जायज है ... पत्थर दिल शहरी इंसान किसी की नहीं सुनते बस बर्बाद करते हैं ..
ReplyDeleteआशा है गाँव में बची हो शुद्धता.......
ReplyDeleteसुंदर भाव,
सादर.
बहुत अच्छी कविता भई . गाँव के प्रति आपका प्रेम और आशंका दोनों ही तारीफ के योग्य है
ReplyDeleteAbhar aap sabhi ka
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