गंगा, मैं जा रहा हूँ
इस साहित्य भूमि से
मन में समाकर
तुम्हारी स्मृति |
फिर देखूंगा तुम्हे
बाबू घाट पर ,हुगली
में |
हैदराबाद में
जब कभी उदास होगा
मेरा मन
बनारस घाटों की
स्मृतियों को उभार लूँगा सीने में
शिवाला घाट से
केदार घाट तक
स्मृतियों की नौका विहार पर
निकल पडूंगा
तुम्हारा धनुषाकार रूप
और भीष्म का अकेलापन
सोचूंगा तब |
तुम्हे याद है न
बेचैनी में अकसर
चला आता था वह तुम्हारे पास ?
कहकर तुमसे
अपनी वेदना
हो जाता था मुक्त तुम्हारा पुत्र
क्षण भर के लिए ?
मैं भी मुक्त होना चाहुंगा
सभी वेदनाओं से |
तुम्हारी पीड़ा का
अहसास है मुझे
अब भी बहते है
सभ्यता के
शव ,
तुम्हारी छाती पर
उड़ेलकर अपने पापों का ढेर
हम खोजते हैं
स्वर्ग का मार्ग ….
bahut khoob !
ReplyDeletelekin ab waqt ganga se door jane ka nhi hai , warna ganga hamse door chali jayegi. waqt hai ganga ko bachane ke liye aawaz uthane ka .....aaiye ganga ko bachaye !
har har gange
एक लफ्ज़ - शानदार
ReplyDeleteगंगा का पानी भी होगा खारा...उसके खुद के अश्रुओं से......
ReplyDeleteसुंदर भाव....
सादर.
acchi kavitha ke liye badhayi nityanand
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