Monday, February 18, 2013

कभी तो हटेंगे ये बादल..




कोशिशें बहुत की 

तुम्हें रोकने की 

नाकाम हुई मेरी कोशिशें

तुम्हें बचकाना लगा 

मेरा प्रयास 

उजाले की आस में 

मैंने खोल दिए झरोखें 

तभी, कुछ बादलों ने ढक लिया सूर्य को 

अब तो मानना पड़ा कि 

खपा है इनदिनों सूरज भी 


चलो अब मैं मानता हूँ हार 

लेकिन अब  मैंने 

द्वार खोल दिया है 

इस उम्मीद में, कि 

कभी तो हटेंगे ये बादल..

1 comment:

  1. बहुत सुंदर कविता भाईजी.

    ReplyDelete

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...