भीतर की बेचैनी
थके हुए तन को सोने नहीं देती
कमरे में
ठंड ने कुछ इस तरह से
किया है कब्ज़ा
जैसे कि
उसने भी बहुमत पा लिया है
कम्बल किसी कमज़ोर विपक्ष की तरह
मुझे ताक रहा है !
थके हुए तन को सोने नहीं देती
कमरे में
ठंड ने कुछ इस तरह से
किया है कब्ज़ा
जैसे कि
उसने भी बहुमत पा लिया है
कम्बल किसी कमज़ोर विपक्ष की तरह
मुझे ताक रहा है !
मैं सोना चाहता हूँ
किन्तु मेरे दिमाग में
बार -बार उभर कर आ रहा है
किसान मजदूर का चेहरा
जिसे अल-सुबह नंगे पैर खेत पर जाना है
उस आदमी का चेहरा याद आ रहा है
जिसे सुबह पानी में उतरना है
अपने परिवार के लिए
इस कंपकंपी सर्दी में खुली सड़क किनारे
घुटनों को पेट पर बाँध कर सोने वाले
लाखों लोगों की अनकही पीड़ा को
किसी ने मुझे ओढ़ने के लिए दिया है
और मैं अपने कमरे में सिगरेट जला रहा हूँ !
किन्तु मेरे दिमाग में
बार -बार उभर कर आ रहा है
किसान मजदूर का चेहरा
जिसे अल-सुबह नंगे पैर खेत पर जाना है
उस आदमी का चेहरा याद आ रहा है
जिसे सुबह पानी में उतरना है
अपने परिवार के लिए
इस कंपकंपी सर्दी में खुली सड़क किनारे
घुटनों को पेट पर बाँध कर सोने वाले
लाखों लोगों की अनकही पीड़ा को
किसी ने मुझे ओढ़ने के लिए दिया है
और मैं अपने कमरे में सिगरेट जला रहा हूँ !
अपने कमरे में बैठ कर
ये सब लिख कर
खुद को कवि मान रहा हूँ शायद
पर सच यही है कि
कविता उन याद आये लोगों के पास है
जिन्हें मैं शब्दों में पिरो रहा हूँ
ये सब लिख कर
खुद को कवि मान रहा हूँ शायद
पर सच यही है कि
कविता उन याद आये लोगों के पास है
जिन्हें मैं शब्दों में पिरो रहा हूँ
सार्थक रचना
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १०० में से ९९ बेईमान ... फ़िर भी मेरा भारत महान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नित्यानंद जी, हमारी खोखली इंसानियत, हमारी दीमक लगी संवेदनाएं, हमारी मगरमच्छ के आंसू जैसी भावुकता और हमारी चुनावी जुमलों जैसी परोपकारिता, हमारी चारित्रिक नग्नता को उजागर कर देती है लेकिन फिर भी हम 'आह से उपजा होगा गान' का प्रपंच रचते भी हैं और फिर भी छपते हैं.
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