समय के साथ
सब कुछ बदला है
आदमी भी
और उसका समाज भी
त्योहारों का स्वरुप भी
ईंट - पत्थरों के बढते
घने जंगल में
चमकती दुधिया रौशनी में
खो गई है चांदनी
तरसने लगी है
जमीं तक पहुँचने के लिए
सरकार के नोटिस पर
जुगनुओं ने छोड़ दिया है जंगल कबका
उद्योगपतियों के
विशेष आर्थिक ज़ोन के लिए
इस बदलाव के
अंधी दौर में
बाल मजदूरी करते - करते
खो गया है बचपन भी कहीं .
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
-
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
-
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
-
बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
achchi abhivyakti
ReplyDeletevandana
बहुत अच्छा लिखते है, हमारी शुभकामनाएं
ReplyDeletejo hum aise hi badhte rahe, toh aur bure haal honge.. :(
ReplyDeleteसब कुछ चाहिए की चाहत में कहीं बहुत कुछ न खो जाए।
ReplyDeletejabardast likha hai aapne...........badhai
ReplyDeleteकुछ भी नहीं बदला। केवल इतना हुआ कि, प्रकृति ने मानव के लालच को उजागर कर दिया। अच्छा है कि इस कविता ने यह समझा। प्रयास अच्छा है। डॉ अभिजित् हैदेराबाद विश्व विद्यालय
ReplyDeleteजी मेरा धन्यवाद स्वीकारें
ReplyDelete