भारत के गलियों में
आजकल
त्रिलोचन नही दिखते
आजकल वे कवितायेँ नही लिखते
जनपदों पर अब
नागार्जुन नही दिखते
क्या इन महान कवियों ने
भांप लिया था समय को
समय से पहले ?
शायद उन्हें ज्ञात हो गया था
आने वाला कल
बस्ती की गली में जो चाय की दुकान थी
उसपर अब चाय नही मिलती
मिलती है
विदेशी शीतल पेय पदार्थ
महानगरों के भीड़ में
अब जनमानस नही दिखता
मुझे देहाती दिखते हैं
भारतीय नही दिखता
क्या मेरी नज़र खो गयी है ?
क्या जनपदों के कवि
सच में लुप्त हो गए हैं
या ----
लुप्त करने की एक साजिस में
उन्हें कैद कर दिया गया है
अलमारी के घुन लगी पुस्तकों में ?
Tuesday, September 7, 2010
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युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...
बेहतरीन रचना .....कडवा सच....!दुष्यंत त्यागी,धूमिल,शलभ श्री राम सिंग,नागार्जुन,भवानी भाई आदि अपने अन्दर की बैचेनी को नहीं झेल सके और किताबें रंग दी सच को अपने आक्रोश तो कभी उलाहनों,व्यंगों न जाने कितने ही माध्यमों से ज़ाहिर करने में , पर सच से समाज को समय समय पर चेताने वाले हाथों की कलम को तो शांत कर दिया समय और नियति ने परन्तु देश का भाग्य लिखने वाले सीना ठोककर कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे है और जायेंगे....न जाने कब और कहाँ तक....
ReplyDeleteवंदना
बेहतरीन रचना .....कडवा सच....!दुष्यंत त्यागी,धूमिल,शलभ श्री राम सिंग,नागार्जुन,भवानी भाई आदि अपने अन्दर की बैचेनी को नहीं झेल सके और किताबें रंग दी सच को अपने आक्रोश तो कभी उलाहनों,व्यंगों न जाने कितने ही माध्यमों से ज़ाहिर करने में , पर सच से समाज को समय समय पर चेताने वाले हाथों की कलम को तो शांत कर दिया समय और नियति ने परन्तु देश का भाग्य लिखने वाले सीना ठोककर कुकुरमुत्तों की तरह उगते जा रहे है और जायेंगे....न जाने कब और कहाँ तक..... really good one
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteवाःह्ह सुन्दर.. एक वाजिब सवाल...
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