हम दोनों की आखरी दिवाली पर
तुमने दिया था जो घड़ी मुझे
आज भी बंधता हूं उसे
मैं अपनी कलाई पर
घड़ी - घड़ी समय को देखने के लिए
उस घड़ी में
समय रुका नही कभी
एक पल के लिए
तुम्हारे जाने के बाद भी
निरंतर चलती रही
वह घड़ी
समय के साथ अपनी सुइओं को मिलाते हुए
घड़ी की सुइओं को देखकर
मैंने भी किया प्रयास कई बार
उस समय से बाहर निकलने की
जहाँ तुमने छोड़ा था मुझे अकेला
समय के साथ
किन्तु सिर्फ समय निकलता गया
और
मैं रुका ही रह गया
वहीँ पर
निकल न पाया
वहां से अब तक
जहाँ छोड़ा था तुमने
मुझे नही पता तुम्हारे घड़ी के बारे में
क्या वह भी चल रही है
तुम्हारे साथ
तुम्हारी तरह ?
कितनी दूर निकल गई हो
कभी देखा है
पीछे मुड़कर ?
जनता हूं
आगे निकलने की चाह रखने वाले
कभी मुड़कर नही देखते पीछे
पर मुझे लगता है
कभी -कभी अकेले में
तुम भी दूरी मापती होगी
हम दोनों के बीच की .
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Nityanand ke dard bhare nagme...solid hai bhai,,,,
ReplyDeleteदूर निकल जाने के बाद पीछे मुड कर देखते कई बार यह ख़याल आता होगा ...रुके हुए समय को ...
ReplyDeleteअच्छी लगी कविता !
समय आगे चलता है। आप भी आगे चलते हैं। कोई किसी के लिए न तो रुकता है, और न रुक सकता है। चलना इस संसार की नियती है और मनुष्य होने के नाते हमे भी चनना होता है। ठहरना केवल एक भ्रम है और यही दुःख का कारण भी है। अच्छा किया कि, कविता ने मांसिक घड़ी तोड़ दी अच्छा हो कि, यह सुंदर कविता ही रहे किसी का सच न हो। हिंदी दिवस की पुर्व संध्या पर यह छायावाद के छाया वाली कविता जिसमें एक यंत्र का मानवीकरण है अच्छा प्रयास है। ...डॉ अभिचित् जोषी हैतेराबाद विश्व विद्यालय
ReplyDeleteSimply awesome... well written...
ReplyDeletebahut khoob sir ji...
ReplyDeleteshukriya vivek bhai.
ReplyDeleteसमय ...
ReplyDeleteहाहाहा ...
मैं मरता नहीं
अमर हूँ मैं //
मेरी तरह चलोगे तुम ?
वाह...समय पर लिखी अभी तक की यूनिक कविता....
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