वे सारे रंग
जो साँझ के वक्त फैले हुए थे
क्षितिज पर
मैंने भर लिया है उन्हें अपनी आँखों में
तुम्हारे लिए
वर्षों से किताब के बीच में रखी हुई
गुलाब पंखुड़ी को भी निकाल लिया है
तुम्हारे कोमल गालों के गुलाल के लिए
तुम्हारे जाने के बाद से
मैंने किसी रंग को
अंग नही लगाया है
आज भी मुझ पर चड़ा हुआ है
तुम्हारा ही रंग
चाहो तो देख लो आकर एकबार
दरअसल ये रंग ही
अब मेरी पहचान बन चुकी है
तुम भी कहो कुछ
अपने रंग के बारे में ....
अतीत के रंग में एक नया रंग डालतें नियानंद जी एवं उनकी यह कविता एक अलग ही रंग को प्राप्त है जिसमे स्वयम के रंग को देखना है ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की पूरी टीम की ओर से आप सब को सपरिवार होली ही हार्दिक शुभकामनाएँ !
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन हैप्पी होली - २ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शुक्रिया बहुत -बहुत .
Deleteबहुत खूब ! विरह में रंग और आकर्हक लगता है !
ReplyDeletelatest post धर्म क्या है ?
बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteआपको होली की शुभकामनाएं!
http://voice-brijesh.blogspot.com
sunder
ReplyDeleteबहुत -बहुत शुक्रिया ब्रिजेश जी , सादर
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