मेरी ऐसी औकात कहाँ
कि मैं बनायुं मंदिर तुम्हारा
मुझमे ऐसी ताकत कहाँ कि
मैं तोडू मस्जिद तुम्हारा
मैं भक्त गरीब तुम्हारा
मैं बंदा फकीर तुम्हारा
अपना घर मैं अब तक बना न पाया
कैसे जलाऊँ बस्ती
भूख की आग पेट में जल रही
मैं कैसे करूं मस्ती ?
तुम्हारे मंदिर - मस्जिद
पर मैं कुछ कहूं
मेरी कहाँ है ऐसी हस्ती ?
छोड़ दिया है
यह काम उनपर
जिनके लिए है मानव जीवन सस्ती
जो आपने सोचा न था
कर रहे हैं बन्दे
इतनी मुझमें हिम्मत कहाँ
कि कह दूं इन्हें मैं गंदे
यदि कहीं है
अस्तित्व तुम्हारा
मेरे लिए समान है
कैसे तुमने यह होने दिया
जब तुम्हारे हाथों में कमान हैं ?
कबीर को अब कहाँ से लाऊं
रहीम को मैं कैसे बुलाऊँ
नानक को यह भूल गये हैं
साधु- मौलबी बन गए हैं
कैसे इन्हें मैं समझाऊँ ?
तुम्हारे और इनके बीच अब
बढ गए हैं फासले
इसीलिए
बढ गए हैं इनके नापाक हौसले .
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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Ishwar ko bhi baant liya hai public ne. karna kuchh nahi bus aag lagake apni roti sekni hai..
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
word verificaton hata den ...shaayad pahale bhi kaha gaya tha ...
dashboard > settings > comments ..yahan aapko word verification milega ..
सटीक अभिव्यक्ति...काश कबीर, नानक और रहीम आज हमारे बीच खड़े हो पाते तो ये गंदे शायद अच्छे हो जाते.
ReplyDeleteकल गल्ती से तारीख गलत दे दी गयी ..कृपया क्षमा करें ...साप्ताहिक काव्य मंच पर आज आपकी रचना है
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/09/17-284.html
बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसच भी तो यही है .. हमें अपने सपनों से फुर्सत नहीं भला हम कहाँ मन्दिर और मस्जिद बना या तोड़ सकते हैं.
मेरा धन्यवाद स्वीकारें
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