हे मनुष्यों के देवता
मैं तुम्हे स्वीकार नही करता
हो सकता है , शायद
मैं मनुष्य नही ।
या फिर
तुम्हारे अस्तित्व पर
मुझे यकीन नहीं
कारण कुछ भी हो
यह सच है
मैं नास्तिक हूँ ।
मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करता , किउंकि
मैंने देखा है तुम्हारे
मंदिरों के पायदानो पर
लोगों को मरते हुए ।
तुम तो रक्षक थे
सर्वशक्तिमान थे उनके लिए ?
किउन नहीं बचाया उन्हे
अकाल मृतु से ?
मरते किउन हैं
वो हजारों मासूम
जीने से पहले
पोषण की कमी से ?
तुम तो अन्न दाता हो उनके लिए ।
बम जो फटे
बाजार में
गुन्हेगार बचे किउन ?
बेक़सूर मरे किउन ?
तुम तो काल के बिनाशक हो
सवाल और भी हैं
तुम्हारे होने पर
तुम्हारी शक्ति पर
मेरी ओर से ।
मंदिरों पर नहीं केवल
मस्जिदों में भी
और
गिरजों में भी
तुम्हारे सजदे के वक्त
उडे चिथड़े तुम्हारे बन्दों के
खून से लथपथ शवों से
तुम्हारे इवादतगाह हुए नापाक
कैसे करोगे उन्हें पाक ?
इसीलिए मैं नास्तिक बन गया हूँ .
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इक बूंद इंसानियत
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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Nityanand Bhai,
ReplyDeleteThis poem reminds me of the discussion we had a few days ago about modernity in poetry. In your poem I find the same hope under duress that is typical of modernist poetry.
God bless you for that. Forge on ...
Rakesh.