Monday, August 27, 2012

आज के 'डेली हिंदी मिलाप' हैदराबाद में प्रकाशित मेरी एक रचना ....


छोड़कर गांव 
जो चले आये थे 
शहरों की ओर 
आज टूट चुके हैं
अपने सपनों के साथ

गांव में उनका मूल्य रखा गया था
अटठाईस मात्र
शहर में आकर हुए
केवल बत्तीस का
गांव ओर शहर के बीच उनकी कीमत
केवल चार रुपए ?

ये शहर
जहां चुकानी पड़ती है
कीमत हर साँस की
यहाँ जीवन टिका हुआ है नोटों पर
यहाँ रोज लगते हैं
करोड़ों के दावं
जिसमें बिकता है केवल आदमी
कैसे बचते सपने ?

हम चले आ रहे हैं
शहरों की ओर
आदर्श जीवन की चाह में
और उठा लिए जाते हैं
किसी जुलूस के लिए आये दिन

जल ,जमीन और जंगल
फिर सोचना होगा
गांवों की ओर हमें लौटना होगा ||

2 comments:

  1. गहरे अहसास लिए हैं ये कविता .....काश आपकी तरह गावं से आने वाला हर व्यक्ति ये समझ सकता कि शहर कितने मंहगे और पहुँच से बाहर हैं ...और यहाँ आने पर सपनों का पूरा ना होना ...हर किसी को तोड़ जाता हैं ..पर वो लोग अपने अहम के चलते गावं वापिस नहीं जाते ....

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया अनु जी मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है . यूँ ही हौसला बढाते रहिये मेरा ताकि सुधार सकूं खुद को मैं ...

      Delete

युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....

. 1.   मैं युद्ध का  समर्थक नहीं हूं  लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी  और अन्याय के खिलाफ हो  युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो  जनांदोलन से...