हर बार खोलता हूँ द्वार
कि , हो जाये तुम्हारा दीदार
काले मेघों का जमघट
हटा नही अभी
तुम भी बेचैन हो शायद
ओ चाँद ....
कि , हो जाये तुम्हारा दीदार
काले मेघों का जमघट
हटा नही अभी
तुम भी बेचैन हो शायद
ओ चाँद ....
सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
वाह!!!!
ReplyDeleteसुन्दर!!!!!!!
अनु
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन , बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने की अनुकम्पा करें, आभारी होऊंगा .
चाँद न जाने किस के इन्तजार में है और वही बैचेनी का सबब है ..सुन्दर पंक्तियाँ है आपकी ..चाँद ..लफ्ज़ ही बहुत कुछ कह देता है
ReplyDeleteअच्छी रचना !
ReplyDeleteबधाई !