हर बार खोलता हूँ द्वार
कि , हो जाये तुम्हारा दीदार
काले मेघों का जमघट
हटा नही अभी
तुम भी बेचैन हो शायद
ओ चाँद ....
कि , हो जाये तुम्हारा दीदार
काले मेघों का जमघट
हटा नही अभी
तुम भी बेचैन हो शायद
ओ चाँद ....
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
वाह!!!!
ReplyDeleteसुन्दर!!!!!!!
अनु
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन , बधाई.
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने की अनुकम्पा करें, आभारी होऊंगा .
चाँद न जाने किस के इन्तजार में है और वही बैचेनी का सबब है ..सुन्दर पंक्तियाँ है आपकी ..चाँद ..लफ्ज़ ही बहुत कुछ कह देता है
ReplyDeleteअच्छी रचना !
ReplyDeleteबधाई !