Saturday, August 18, 2012

तुम भी बेचैन हो शायद ओ चाँद .

हर बार खोलता हूँ द्वार 
कि , हो जाये तुम्हारा दीदार
 
काले मेघों का जमघट 
हटा नही अभी 
तुम भी बेचैन हो शायद 
ओ चाँद ....

4 comments:

  1. वाह!!!!
    सुन्दर!!!!!!!

    अनु

    ReplyDelete

  2. बहुत सुन्दर सृजन , बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने की अनुकम्पा करें, आभारी होऊंगा .

    ReplyDelete
  3. चाँद न जाने किस के इन्तजार में है और वही बैचेनी का सबब है ..सुन्दर पंक्तियाँ है आपकी ..चाँद ..लफ्ज़ ही बहुत कुछ कह देता है

    ReplyDelete
  4. अच्छी रचना !
    बधाई !

    ReplyDelete

युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....

. 1.   मैं युद्ध का  समर्थक नहीं हूं  लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी  और अन्याय के खिलाफ हो  युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो  जनांदोलन से...