Thursday, August 2, 2012

मैं, बनकर एक माली संवार रहा हूँ तुम्हें .....

मैं रोज देखता हूँ सपना 
तुम्हारे लिए 
तुम सब मुस्कुरा रहे हो 
फूलों की तरह 
धरती के इस गुलिस्तां में 
और मैं, बनकर एक माली
संवार रहा हूँ तुम्हें .....

हे नन्हे फरिश्तों 
तोड़कर सब भेद 
तुम आना मेरे इस
सपनों के बगीचे में
करना साकार मेरे निष्पाप स्वप्न को
और ले जाना
अपने –अपने हिस्से की
मीठी –मीठी मुस्कान

5 comments:

  1. वाह!!!!!!!!
    बहुत सुन्दर...सुकोमल रचना...

    अनु

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  2. भावमय करती प्रस्‍तुति।

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  3. main bhi dekhna chahta hoon sapna:)
    sach me komal rachna....

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  4. Shukriya Aap sabhi mitron ka. Swagat hai Mukesh ji..

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इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...