शहर के बीचों -बीच
तन्हा खड़े
खंडहर की दीवारों पर
खुदे हुए हजारों नामों के बीच
मैंने कभी नहीं खोजा
अपना नाम
यूं भी कभी
हिम्मत नहीं कर पाया , कि
पत्थरों पर लिखुँ
मैं अपना नाम
जब लिख नहीं पाया
कभी किसी दिल पर /
पत्थर तो सह लेगा
हर दर्द को
दिल कहाँ सह पायेगा
नुकीले चुभन की पीड़ा ?
बेजुबान खंडहर की दीवारें
चीखेगी नहीं कभी
किन्तु अहसास है मुझे
चुभन की पीड़ा की /
मेरे भी दिल पर कभी
लिखा था किसी ने
अपना नाम
एक लम्बी रेखा खींच कर
आज कह नहीं सकता यकीन से
कि -उसे याद है
उनका नाम मेरे दिल पर खुदा हुआ
किन्तु-
बहते लहू धारा का निशां
आज भी बाकी है
मेरे दिल पर //