Wednesday, September 16, 2020

राजा से हर मौत का हिसाब लेना चाहिए

नये भारत की सरकार
मारे गए नागरिकों की गिनती नहीं करती
मने किसी सरकारी खाते और डेटाबेस में
कोई रिकार्ड नहीं रखती
दरअसल आसान भाषा में समझ लीजिए
कि सरकार अब लाशों की गिनती नहीं करती

सरकार तो अब जीते हुए लोगों को
लाश बनाकर छोड़ देती है

राजा का सिंहासन जब लाशों की ढेर पर रखा हो
तब लाशों की गिनती भी अपराध माना जा सकता है
राजा इसे 'एक्ट ऑफ गॉड' यानी ईश्वरीय कृत
या लीला भी करार देकर बरी हो सकता है
राजा आखिर राजा होता है
वह कुछ भी कर सकता है
राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि कहा जाता है
ईश्वर द्वारा किये गए हत्याओं को किसी अपराध
या पाप की श्रेणी में नहीं गिना जाता
जो मरा वही पापी हो जाता है !

मजदूर, किसान, बेरोजगार को
राजा अब नागरिक नहीं मानता
वह सवाल पूछने वालों, काम मांगने वालों
और भूख में खाना मांगने वालों को देशद्रोही कहता है

राजा उनकी हत्या का आदेश नहीं देता
सिर्फ बेघर कर देता है
सड़क पर ला देता है
उनकी झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश जारी करवाता है
राजा अस्पताल की ऑक्सिजन सप्लाई बंद करवा देता है

प्रजा राजा की भक्ति और राष्ट्रवाद की भावना के बोझ से
खुद को मुक्त नहीं कर पाती

किसान फांसी लगा लेता है
बेरोजगार युवा ज़हर पी लेता है
रोटियों के साथ रेल से कटकर मर जाता है
मजदूर का परिवार
और इस तरह मरते हुए वह
राजा को हत्या के आरोप से बचा लेता है

जबकि मैं सोचता हूँ इसके विपरीत
असामयिक हुई हर मौत के लिए 

राजा ही दोषी है
भूख से मरे हर नागरिक का क़ातिल है राजा
क्योंकि भूख से मरना भूकम्प से मरना नहीं है
किसान आत्महत्या दरअसल हत्या है राज्य द्वारा

ऐसी तमाम मौतों के लिए केवल राजा को ही
दोषी माना जाना चाहिए !
उससे एक -एक मौत का हिसाब लेना चाहिए ।।

Thursday, September 10, 2020

चुप्पी की भी सीमा तय हों

 सत्ता

लाशों पर
नक़्क़ाशी करवाती है

सम्राट का महल
जब कभी ढहा दिया जाएगा
मलबे में
इंसानी हड्डियां भी निकलेगी

राजा एक दिन में निरंकुश नहीं हुआ है
प्रजा की ख़ामोशी ने
उसे उकसाया है !

घर गायब होते हुए
बात बस्ती तक पहुंच चुकी है
ज़मीन पहले ही छीन चुकी है
अब आसमान की बारी है

चुप्पी की भी सीमा तय हों
पानी का रंग बदलने लगा है देखिए
कहीं ये हमारा लहू तो नहीं है ?

Thursday, September 3, 2020

हमारी चुप्पी को वह स्वीकृति मान रहा है

 प्रतिरोध में खड़ा होना है

या अवसाद में ही मर जाना है
यह निर्णय का वक्त है

हमारी चुप्पी को
वह स्वीकृति मान रहा है

वह खेल रहा है
तोड़ रहा है हमारे सपनों को
वह ज़हर घोल रहा है
हमारे बच्चों के भविष्य में
और ऐसा होने नहीं दिया जाना चाहिए

उसे बतलाना होगा
हम टूटे हुए नहीं हैं
हम आयेंगे मिल कर उसके किले को ढहाने के लिए
हम ही बचायेंगे अपने देश को
ढहने से पहले ....

Tuesday, September 1, 2020

हम आधुनिक युग के सभ्य शिकारी हैं

 हमारी जीभ को मिल गया है

इंसानी लहू का स्वाद
अब हम सब लहू से बुझाना चाहते हैं
अपनी प्यास
हम सब आदमखोर हो चुके हैं
हम आधुनिक युग के
सभ्य शिकारी हैं

क्या हुआ जो पैने नहीं हैं
हमारे दांत
हम अपनी भाषा से कर सकते हैं
घायल और क़त्ल भी
इस युग का यही सबसे घातक हथियार है
हम आधुनिक युग के
सभ्य शिकारी हैं

हम माहिर हो चुके हैं
भावनाओं का जाल बिछा कर
शिकार करने की कला में
हम संवेदनाओं का मुरब्बा बना कर
खाने लगे हैं
हम आधुनिक युग के
सभ्य शिकारी हैं |

तुम सुबह के इंतज़ार में रहो
इस उम्मीद में
कि कोई आएगा मदद को
हम रातों को काली और लम्बी कर देंगे
हम आधुनिक युग के
सभ्य शिकारी हैं
सब हमें इन्सान समझते हैं !


इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...