Monday, September 17, 2018

यही मैं ही इस सभ्यता के पतन का कारण बनेगा

मानव सभ्यता के सबसे क्रूर समय में जी रहे हैं हम हमारा व्यवहार और हमारी भाषा हद से ज्यादा असभ्य और हिंसात्मक हो चुकी है व्यक्ति पर हावी हो चुका है उसका मैं इस मैं पर हमारा कोई बस नहीं है मेरा मैं गालियां बकने लगा है हत्या करता है फिर भी शर्मिंदा नहीं होता किसी अपराध पर मैं शर्मिंदा होना चाहता हूँ हर अपराध के बाद किन्तु मेरे मैं का अहंकार इतना मगरूर हो चुका है कि अपराध का अहसास होने पर भी वह शर्मिंदा नहीं हो पाता और तब भी बड़ी बेशर्मी के साथ खुद को मनुष्य बताते हैं हम इसी मैं ने ही आपसी रिश्तों को शर्मसार किया है यही मैं ही इस सभ्यता के पतन का कारण बनेगा

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...