Tuesday, March 27, 2018

गली की दीवारों पर बाकी रह जाते हैं खून के धब्बे

अक्सर दंगों के बाद
सभी दोषी निर्दोष पाये जाते हैं
बस शहर की सड़कों और
गली की दीवारों पर बाकी रह जाते हैं
खून के धब्बे 
जले हुए घरों की अस्थियाँ
और राख में छिपी हुई चिंगारी
सन्नाटे में खो जाती हैं
मासूम चीखें
आग जो लगाई गई है
धर्म के नाम पर
उस पर हांडी चढ़ा कर
इंसानी गोश्त पका रहे हैं नरभक्षी
गंगा किनारे सहमा हुआ है नगर-मोहल्ला
न्याय की देवी आँखों पर पट्टी बांध कर सो गई है
आसमान पर फैल गए हैं
धुंए के बादल
सब कुछ जल जाने के बाद
शहर में अब कर्फ्यू लगा है !

Tuesday, March 13, 2018

मैं तुम्हारे चेहरे की हंसी बुन रहा हूँ

1.
सुनो, 
नदी में जल रहे 
या 
न रहे, 
मेरी आँखों में 
बाकी रहेगा गीलापन
जब चाहो
तुम
देख लेना
अपना चेहरा
मेरी आँखों में |


2.


मैं,
तब भी तुम्हारे साथ था
जब तुम्हारा नहीं था
कोई परिचय मेरे साथ
और मैं लगातर 
अनुभव करता रहा
तुम्हारे दर्द को |

अकेलेपन में
तुम्हारे दर्द के बारे में
मेरा अनुमान कितना सटीक था
यह तुम ही जानो
मेरा अनुमान आज भी वही है
ठीक मेरे अकेलेपन की तरह
मेरे इस कमरे में
जहाँ मैं हूँ
अपनी तनहाई के साथ
और तुम हो शायद व्यस्त हो
अपनी भरी-पूरी दुनिया में
मैं गिन रहा हूँ
घड़ी की टिक-टिक इस तरह
जैसे डाक्टर गिनता है
दिल की धड़कन बीमारी में
मैं तुम्हारे चेहरे की
हंसी बुन रहा हूँ ......




रचनाकाल : मार्च , 2016



Monday, March 5, 2018

वह चाहता है हर जुबां पर अपना नाम और जयगान

अन्याय
और क्रूर बर्बरताओं की कहानियां
जो हमने किताबों में पढ़ी थी
अब देख रहे हैं
तानाशाही सत्ता उन्माद पर है 
रातोंरात कर लेना चाहता है
सब कुछ अपने नाम
दीवार पर लिखे हर सवाल को मिटा देना चाहता है
बंद कर देना चाहता है हर जुबान को
जो सवाल करती है
सत्ता पर होने के बाद भी
बहुत डरा हुआ है वह
नगर के हर नुक्कड़ और चौराहे पर
बना देना चाहता है अपनी मूर्ति
वह चाहता है हर जुबां पर अपना नाम और जयगान
दरअसल तानाशाह एक डरा हुआ व्यक्ति है
अकसर वह अपनी परछाई से भी डर जाता है
और उसे भी मिटा देना चाहता है
इसलिए वह अंधकार फैलाता है
अकेले में वह चीखते हुए अपने कान बंद कर लेता है
हार कर वह रोना तो चाहता है अक्सर
किन्तु उसकी आँखों में पानी नहीं है

Thursday, March 1, 2018

इस तरह ढय जाता है एक देश

जब देश से भी बड़ा हो जाता है
शासक
और नागरिक से बड़ा हो जाता है
पताका
जब न्याय पर भारी पड़ता है 
अन्याय
और शिक्षा को पछाड़ दें
धार्मिक उन्माद
तब हिलने लगता है
देश का
मानचित्र
इसी तरह से भूकम्प आता है
और ढय जाता है
एक देश |

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...