Monday, February 10, 2014

काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना

दिनभर की थकान के बाद 
जब घुसता हूँ 
अपने दस -बाई -दस के कमरे में 
फिर मांजता हूँ बर्तन 
और गूंथने लगता हूँ आटा 
सोचता हूँ 
रोटी के बारे में 
तब यादे आते हैं कई चेहरे 
जिन्हें देखा था खोदते हुए सड़क 
या रंगते हुए आलिशान भवन 
तब और भी बढ़ जाती है
मेरी थकान
और मैं सोचता हूँ
उनकी रोटी के बारे में

जी चाहता है
बुला लूं एक रोज उन सबको
और अपने हाथों से बना कर खिलाऊ
गरम -गरम रोटियां

काश, कभी सच हो पाता मेरा ये सपना
उस  दिन मैं सबसे खुश होता इस देश में .

Sunday, February 2, 2014

जम्हूरियत की बात मत पूछो यारों

जम्हूरियत की बात न पूछो 
यहाँ तो बेचीं जा रही हैं
कब्रिस्तान की ज़मीने 
ज़ुबान हमारी तुतलाने लगी हैं 
वजीरों के गीत गाते -गाते 
जम्हूरियत की बात मत पूछो यारों 

ये कैसी जम्हूरियत है 
जहाँ पाले जाते हैं 
तानाशाही हुक्मरान 
और भूख से मरते हैं आवाम
अब सोचिये
चाहिए क्या हमें ,
चंद खानदान
या पूरा हिन्दुस्तान ?

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...