Wednesday, February 23, 2011

घृणा



घृणा ' शब्द से
मेरा नाता मजबूत हुआ
जिस दिन
' सहानुभूति ' शब्द से
मेरा परिचय हुआ
क्योंकि --
सहानुभूति से अधिक
घातक शब्द नहीं पाया
मैंने --
अपने जीवन के शब्दकोष में /


प्रश्न चिह्न


 अमेरिका कहता है
मेरा देश
सर्वसम्पन्न है
और --
परोस देता है
अरबपतियों की एक लम्बी सूची
मेरे देश के सत्ताभोगियों के आगे
और मीडिया उसे
परोसती है
देशवासियों के लिए /

यदि मेरा देश
पूर्ण विकसित है
तो किसके झोपड़ी में जाता है
रात बीताने का नाटक करने के लिए
कांग्रेस का युवराज ?

फिर क्यों रोज लगाता है फांसी
भारत का किसान ?
क्यों एक मासूम चेहरा झांकता है
चमकते शीशों वाली गाड़ी के भीतर
क्या यह --
षड्यंत्र नही है
हमें भटकने का ?

अमेरिका के इस सर्वसम्पन्न
और पूर्ण विकसित भारत में
क्यों उठ रही है
रोज़ एक नए राज्य की गठन की मांग
क्यों युवा अपना रहे हैं
नक्सलवाद ?
टाटा ,अम्बानी और बिरला
क्या यही भारत है ?

वेदना




अपनी वेदना  को                       
 मैं शब्दों में
व्यक्त नही कर सकता
मेरी वेदना केवल
'शब्द ' तक सीमित नही है
शब्दों से परें हैं
सागर से गहरी है
सागर एक शब्द तो नही /

मेरी वेदना की  तुलना
नही की जा सकती
पृथ्वी की किसी
विशालकाय वस्तु या प्राणी से
मेरी वेदना केवल
वेदना मात्र नही है
यह एक अंतहीन कहानी है
जिसे पिरोया नही जा सकता
किसी माला में
मेरी वेदना सिर्फ
मेरी  वेदना ही तो नही ?
 

Sunday, February 20, 2011

सारा दोष सागर का है

वो देखो फिर निकल पड़ी है औरतें 
कमर और सर पर लिए गागर 
पानी की तलाश में 
और दिल्ली में हो रही है बैठक
पेयजल समस्या पर 
और अफसरों के सामने रखा हुआ है 
सील बंध बोतलों में पानी 
बैठक के बाद
घोषणा हुई
सारा दोष सागर का है
सारा पानी खींच लेता है 
हमारी नदियों का 
और किसान डाल देता है 
अपने खेतों में 
और अब योजना आयोग के अधिकारियों ने 
निर्णय लिया है 
बैठक में 
चेरापूंजी में भी अब 
तालाब खुदवाये जायेंगे 
अगली पंचवर्षीय योजना के तहत .//

Thursday, February 17, 2011

और मुझे याद आये खुदीराम बोस

खुदीराम बोस
आज फिर याद आये मुझे 
खबर पढकर कि--
आज एक किसान ने फिर लगा ली फांसी/

मैंने दिल्ली में यह सूचना भेजी कि 
फिर एक किसान ने 
लगा ली है फांसी 
और मुझे याद आये खुदीराम बोस 
सूचना पढकर 
वे हंसे-
रावण की हंसी 
फिर व्यंग किया -
किसान और खुदीराम ?
संसद मार्ग पर खड़े 
रावणों का चेहरा सोचने लगा मैं 
सहसा अपनी भूल का अहसास हुआ 
क्यों भेजी मैंने 
यह सूचना दिल्ली की लंका में 
रावणों के इस दल में 
कोई विभीषण  भी तो नहीं आज 
पता चल गया मुझे 
क्यों चले गए 
शरतचंद्र  और प्रेमचंद //

Wednesday, February 9, 2011

हार चुका है वृक्षों का दल

देवता लुप्त हैं
क्रूर मानव शेष हैं
विकृत पशुत्व्य बचा है /
तलवार खेलने के लिए बचे हैं अब
और
ढाल बंध  चुका है पीठ पर
बंदूक की गोली बिखरी पड़ी है हथेली पर
पांव पसार चुका है षड्यंत
और
भोजन में मिल चुका है विष
जीवन आज  विध्वंस है
और सारा वन उजड़ चुका है /
खाल, मांस .दांत नाक
सब छीन चुका है
पृथ्वी के बाज़ार में
ऊँचे दाम में
बेच कर लौटे हैं
क्या अपराध किया है
कि--
उनका हाथ निहत्या है आज ?

खो रहा है जीवन
और --
बन्धुत्व्य
नदी स्रोत खो चुकी है
हार चुका है वृक्षों का दल
फूल -पंछी -वायु -मेघ
घास -लता वनभूमि
और बहुत कुछ
हे -पृथ्वी तुम भी तो बन रहे हो मरुभूमि
कौन बचाएगा तुम्हें ?

Wednesday, February 2, 2011

बागबाहरा के चार दिन

वर्ष दो हजार ग्यारह
अट्ठाईस से इकतीस जनवरी तक
मेरा पड़ाव था बागबाहरा
यहाँ एक घर है
इस घर में छतीस जन हैं
बागबाहरा का यह घर
लगा मुझे और उन्हें
जैसे बागों में बहार हो
देवताओं का आमंत्रण हो
अपने भक्तों को /

लगा मुझे जैसे
यहीं से हुआ था श्री गणेश
अतिथि देवो भवो /

बागबाहरा के  छत्तीस जनों वाले इस घर में
पहले -पहल
मेरे इस प्रवास के अनुभव को
मैंने कहा--
गूंगे का मीठा आम
राजमार्ग से सटा हुआ
खेत - खलियान से जुड़ा हुआ
यह घर जिसके सामने
आलीशान देवालय भी
क्षीण लगा मुझे /

चहकते - कूदते
चलते -फिरते
हर कोई
देव दूत लगा मुझे
आदर -सत्कार
सेवा भाव , सुसंस्कृत से
अलंकृत
इस घर का प्रत्येक सदस्य /

बच्चा, बुजुर्ग
क्या कुछ नही सिखाया मुझे?
इस प्रवास के बाद
अब किसी मंदिर की तलाश नही मुझे
किउंकि --
देवकी -वासुदेव
यशोदा और नन्द
और मिले --
रजत कृष्ण मुझे
बागबाहरा के इस घर में /


Tuesday, February 1, 2011

यह है दुर्भाग्य कि---

राहुल आये संगमा आई
सुले आई
खाली टोकरा सर पर उठाकर
गावं में जाकर रात बीताये
भारत के यह नए भाग्य बिधाता
सुबह उठ कर फोटो खिचाये
युवराज बनकर घुमते हैं
गाड़ी का धुआं छोड़ते हैं
 देश के नए भाग्य  विधाता
देश का भ्रमण सिर्फ करते हैं
यह है दुर्भाग्य कि----
लोग इन्हें देखने को मरते हैं 

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...