Wednesday, June 24, 2020

चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है

उन लोगों का कहना है
सब ठीक होगा
उम्मीद की इस दवा की
वैधता कितनी बची है अब
आखिरी रात कब सोये गहरी नींद याद नहीं
सुबह का इंतज़ार रहता इनदिनों
सपनों ने आत्महत्या कर ली है
बारिश के बाद छाता भी तो बोझ लगता है
मेरी भाषा भी अब
संक्रमित हो चुकी है
सभ्यता की उम्मीद बेकार है
इस दौर में भी खुश हैं जो लोग
उन्हें देख कर हंस लेना भी अब छल लगता है
भोजन की खुशबू से पेट नहीं भरता
और मजदूर जीना चाहता है
इस चाहत पर भी दिक्कत है उनको
इस चाहत को भी तो लालच कहा है आपने
आपकी बातों से
उसकी भूख नहीं मिटती
संतुलन अब कहीं नहीं है
मौत भारी है जीवन पर
चेहरों ने अभिव्यक्ति की भाषा खो दी है
आँखों में झांक कर देखा है कभी आपने ?
आँखों की भाषा सबको नहीं आती है

Friday, June 12, 2020

चींटियाँ कतार बना कर चल रही हैं बिना किसी आपसी टकराव के

कितना असभ्य लगता है
कि भुखमरी, शोषण, हत्या आदि के खिलाफ
जिन्हें लड़ना था मिलकर
वे आपस में लड़ने लगे हैं
वैश्विक संक्रमण के इस दौर में
यह फासीवादी सत्ता की जीत है
जिस वक्त एक-दूसरे की ताकतों पर बात करनी थी
उस वक्त वे एक-दूसरे की कमियां गिना रहे हैं !
सोचकर देखिएगा-
कहीं हम फासीवाद के जाल में तो नहीं फंस गये हैं
बांटो और राज करो की नीति का शिकार तो नहीं बन गये हैं !
यह हमलों का दौर है
किंतु पहले दुश्मन की पहचान ज़रूरी है
विभाजनकारी ताकतों की शिनाख्त ज़रूरी है
मित्र बनकर भीतर बैठा शत्रु सबसे घातक होता है
एक भी गलत निशाना विनाश ला सकता है
पूरे शरीर को नीला पड़ने से पहले
इस ज़हर को फैलने से रोकना होगा
नफ़रत का संक्रमण सबसे पहले
इंसानियत को मार देता है
अब, जब उड़ चुकी है रातों की नींद हमारी
तो सपनों की बात फ़ुज़ूल है
कितना ज़हर भर चुका है हमारे भीतर
यह जांचने का वक्त है
हमने बिना सोचे ही गिद्धों को बदनाम किया है
और वे विलुप्त होते चले गये शर्म से
इस तरह हम बेशर्म हो गये
मेरे कमरे के बाहर चींटियाँ कतार बना कर चल रही हैं
बिना किसी आपसी टकराव के !!

Tuesday, June 9, 2020

भूख से मेरे लोगों की सूची कहीं देखी है आपने

वो जो बहुत संवेदनशील लगते थे हमें
उनकी बनावटी संवेदनशीलता की बाहरी परत
अब उतर चुकी है
उनसे भूख
और लोगों की मौत पर
सवाल मत पूछिए
वे नाराज़ हो जाएंगे
मैंने भी पूछा था
सड़क पर मरते मजदूरों के बारे में
कहा था उनसे-
आपकी बातों से पेट तो नहीं भरेगा !
उन्होंने मुझे बाहर धकेल दिया
एक अधेड़ उम्र की औरत
कमरा खाली कर चली गयी दो दिन पहले
फ्लैट्स वाले बाबुओं ने उससे
अपने घरों में काम कराने से मना कर दिया
साईकल पर कचौड़ी बेचने वाले एक पिता ने
गांव जाकर ख़ुदकुशी कर ली
वो मुझे भी कवि कहता था
मैंने उसे कविता नहीं सुनाई
एक दिन कुछ पैसे देना चाहा
उसने मुस्कुराकर कहा था - आपकी हालत तो मैं भी जानता हूँ
कमरे में आते-आते भीग गई थी मेरी आँखें
किन्तु चीख़ कर रो नहीं पाया था उस रात
उसे महामारी ने नहीं
उसे व्यवस्था और इस मुखौटाधारी समाज ने मारा है
एक साथी ने फोन पर कहा - पता नहीं आगे क्या करूंगा !
कोरोना मारेगा या ख़ुद ही मर जाऊँगा
लॉकडाउन में भूख तो नहीं रुकी
मौत भी नहीं रुकी
भूख से मेरे लोगों की सूची कहीं देखी है आपने
काम छूटने पर कमरा खाली कर गयी औरत की मैंने कोई ख़बर नहीं ली
ख़ुदकुशी कर चुके उस कचौड़ी वाले के परिवार को
मैंने नहीं देखा !!
सड़क पर चलते हुए मारे गये सैकड़ों मजदूरों को बचाने के लिए
मैं कुछ नहीं कर पाया
अपने तमाम अपराधों में
मैं इसे भी शामिल करता हूँ
मजबूरी या विवशता कह कर इस अपराध से
मुक्त नहीं होना चाहता ....

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...