Monday, November 23, 2020

उम्मीद और वादों से अब डर लगता है

 कविताएं मरती नहीं कभी

छिप सकती हैं
अक्सर छिपा दी जाती हैं
षडयंत्र कर
ताकि पुरस्कार के लिए घोषित नाम पर
शर्मिंदा न होना पड़े
गैंगबाज, कलावादी आलोचक चयनकर्ता को
एक कवि मर गया ...कर्ज़ और भुखमरी से
फाउन्डेशन वाले आलोचक ने क्या किया ?
कवि के मरने के बाद दुधिया दांत दिखाते हुए अफ़सोस की उलटी की
एक कविता संकलन छपवा दिया
इसी तरह वो फिर महान हो गया
क्रांतिकारी टाइप तमाम लौंडे कवि
उसके ब्रांड का झोला उठा कर घूमते दिखे हमको मेले में
आज उन सबको सरकारी नौकरी है !
मुझको बोला एक दोस्त ने - कर लिए क्रांति ?
हम बोले ... अब भी शर्मिंदा नहीं हूँ
सरकार की औकात अब भी नहीं
मुझे खरीद सकें
हाँ, जो दलाल थे कवि बने हुए
उनको हमने देख लिया है ...
आगे तो इतिहास होगा -
कौन , कब कहाँ छिपा था
कौन किसे धोखा दे रहा था ..
हाँ, विश्वास अब मर चुका है ..
उम्मीद और वादों से अब डर लगता है
नारों की बात ना करो ...
रात की गहराई ही जाने सन्नाटे का राज

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...