Sunday, July 19, 2020

भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है

चुप्पी साधे सब जीव
सुरक्षित हो जाने के भ्रम में
अंधेरे बिलों में छिप कर
राहत की सांस ले रहे हैं
बाहर आदमखोर भेड़िया
हंस रहा है
इसकी ख़बर नहीं है उन्हें
भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है
दे सकता है सत्संग शिविर में प्रवचन
सुना सकता है बच्चों को कहानी
शिकार को जाल में फंसाने के लिए
कुछ भी कर सकता है वो
वह अब अपने खून भरे नुकीले पंजों को
खुर पहनकर छिपा कर चलता है
इनदिनों वो तमाम आदमखोर जानवरों का
मुखिया बन चुका है
आप भी जानते हैं कि अब वह गुफा के भीतर
कब और क्यों जाता है
हम बार -बार आगाह कर रहे हैं
कि जंगल में आग लग चुकी है
और आदमखोर भेड़िया अपने साथियों के साथ
मानव बस्तियों की तरफ बढ़ रहा है
अफ़सोस , कि लोग मुझे
आसमान गिरा , आसमान गिरा कहने वाला
खरगोश समझ रहे हैं !

रचनाकाल : , 19 जुलाई 2019

Thursday, July 16, 2020

नार्थ -ईस्ट

हम कितना जानते हैं
और कितने जुड़े हुए हैं
पूर्वोत्तर के लोगों से , उनके दर्द, तकलीफ़
जीवन-संघर्ष से
और कितना जानते हैं उनकी ज़रूरतों के बारे ?
यह सवाल आज अचानक नहीं उठा है मन में
जब कभी फोन से पूछता हूँ वहां किसी मित्र से हाल
और कहता हूँ
-आप लोगों की ख़बर नहीं मिलती
तब हमेशा सुनने को मिलता है एक ही बात -
यहां से भारत बहुत दूर है !
इरोम शर्मीला को भी हम अक्सर याद नहीं करते हैं
कुछ ज़रूरत भर अपने लेखन और भाषण में
करते हैं उनका जिक्र
ब्रह्मपुत्र जब बेकाबू होकर डूबो देता है वहां जीवन
बहा ले जाता है सब कुछ
हम कांजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में मरे हुए जानवरों की तस्वीरें साझा करते हैं
हमारी संवेदनाएं तैरने लगती है
सोशल मीडिया की पटल पर
सेवेन सिस्टर राज्यों के कितनी बहनों को
हमने दिल्ली में अपमानित होते देख अपनी आवाज़ उठाई है ?
जब कोई हमारी गली में उन्हें
चीनी, नेपाली, चिंकी, छिपकली
और अब कोरोना कह कर अपमानित करता है
हमने कब उसका प्रतिवाद किया है
कब हमने जुलूस निकाला है उनके अपमान के खिलाफ़
याद हो तो बता दीजिए
हमने नार्थ ईस्ट को सिर्फ सुंदर वादियों , घाटियों
और चेरापूंजी की वर्षा के लिए याद किया अक्सर
अरुणाचल के सूर्योदय के लिए याद किया
हमने कामाख्या मंदिर और ब्रह्मपुत्र के लिए अपनी स्मृति में सजा रखा है
पर हम उनकी तकलीफ़ों में शामिल होने से बचते रहे हैं हमेशा
सुरक्षा बलों के विशेषाधिकार तो याद है हमें
हमने वहां के लोगों की अधिकार की बात नहीं की है
राजनेताओं का चरित्र तो वहां भी दिल्ली जैसा ही है
और बाकी जो आवाज़ उठाता है अलग होकर
वह कैद कर लिया जाता है
भूपेन हज़ारिका के एक गीत के बोल याद आते हैं मुझे -
'दिल को बहला लिया , तूने आस -निराश का खेल किया'
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा है
बाढ़ में फिर डूब गया है असम
मेरे दोस्त अब भी कहते हैं - यहां से बहुत दूर है भारत !
हमने कभी नहीं सोचा
वे ऐसा क्यों कहते हैं !!
हम अपने कमरों में बैठकर दार्जिलिंग चाय पी रहे हैं ......

Tuesday, July 14, 2020

उदासी में ही मैं लिख सकूंगा प्रेम की सबसे मुकम्मल कविता

याद है तुम्हें
मैंने कहा था तुमसे
अच्छा लगता है मुझे
मेरा उदास होना
दरअसल अपनी उदासी में ही मैं
खुद में होता हूँ पूरी तरह
जब भर आती हैं मेरी आँखें और धुंधली पड़ती हैं
वहमी रिश्ते -नातों की तस्वीरें
मैं केवल सोचता हूँ अपने बारे में
और कल रात जब मैं फोन पर झगड़ रहा था तुमसे
तुम्हारी ही किसी बात पर
क्योंकि मेरी ख़ामोशी पर तुम बार- बार पूछती
कि 'मैं क्यों हूँ उदास' ?
मैं परेशान होता हूँ तुम्हारे इस सवाल से
न पूछो कभी मुझसे मेरी उदासी का राज
बस जब मैं खामोश रहूँ लम्बे समय तक
तुम समझ लेना कि मैं खुद के साथ हूँ
मतलब मैं सोच रहा हूँ तुम्हें
दरअसल उस दौरान मैं विलीन होता हूँ प्रेम में
और सोचता हूँ एक प्रेम कविता पर
जिसे मैं लिख सकूं तुम्हारे लिए
और मुझे लगता है कि
अपनी उदासी में ही मैं लिख सकूंगा
प्रेम की सबसे मुकम्मल कविता
तुम्हारे लिए..!!
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रचनाकाल :  जुलाई 14 , 2015


Thursday, July 9, 2020

अंधकार का साम्राज्य विस्तार ले रहा है

रात की लम्बाई बढ़ गयी है
या सुबह देर से आने लगी है
इनदिनों
या अंधेरा और सन्नाटे ने
अड्डा जमा लिया है भीतर !
चारों ओर हाहाकार
चीत्कार
बदबूदार हवा
लावारिस शवों के बीच
चली रही है सांसे
देह के साथ
सोच भी संक्रमित हो रही है
भरोसा भी अब धोखा देने लगा है
रात की उम्र बढ़ गयी है
अंधकार का साम्राज्य विस्तार ले रहा है
भीतर ही भीतर !

Tuesday, July 7, 2020

हम लाशों की तसवीर उतारने लगे हैं

हमारी संवेदनाओं का आलम न पूछो
हत्यारे को रोक नहीं पाते हत्या करने से
इसलिए हत्या के बाद
हम लाशों की तसवीर उतारने लगे हैं
और हत्या का करते हैं लाइव !
हत्या के वक्त वह चीख़ता रहा
रोता रहा
गिड़गिड़ाते हुए मांगता रहा मदद उम्मीद की नज़रों से
हमारी सुनने की शक्ति ख़त्म हो चुकी है
हम मनोरंजन के आदी हैं
सदियों से हम हत्या का जश्न मनाते आ रहे हैं
हर हत्या के बाद बाढ़ आती है
बहने लगती हैं हमारी संवेदनाएं
कवि कविता लिखता है हत्या की निंदा में
एक्टिविस्ट कैंडिल मार्च का करते आयोजन
तभी पता चलता है
हत्यारे छूट गए हैं जमानत पर
और मंत्री महोदय माला पहनाकर उनका स्वागत करता है
अब सड़क पर उतरते हैं विपक्षी दल यह भूल कर
कि उनके शासन में जो हत्याएं हुई थी
उनका इंसाफ़ नहीं हुआ है अब तक
हत्या यूं ही नहीं होती
हत्या की जाती है
कभी जश्न के लिए
अक्सर राजनीति के लिए ।।।

Monday, July 6, 2020

हम भी शामिल रहें उनके तमाम अपराधों में

वे लोग चाँद पर
घर बनाने की बात कर रहे थे
सभ्यता का स्थानान्तरण करना चाहते थे
इसी लालच में ग्रह मंगल की खोज में लग गये
जबकि अब तक जिस पृथ्वी पर बसे हुए हैं
उसे बचाने के लिए कुछ नहीं किया
विकास के नाम पर विनाश के हथियार बनाए
हवा में ज़हर मिलाया
और पानी में इंसानी खून
आधुनिकता की चाह में उन्होंने सबसे पहले
संवेदनाओं का क़त्ल किया
उन्होंने धर्म का दुरुपोयोग किया
उन्होंने अपने ईश्वर तक को धोखा दिया
मंदिर-मस्ज़िद के बहाने लोगों को लड़वा दिया
भगवान के नाम पर उन्होंने बस्तियां जला दी
कई नगर उड़ा दिए
उन्होंने प्रेम के नाम पर छल किया
विश्वास के नाम पर धोखा दिया
जंगल काट दिए
पहाड़ तोड़ दिया
नदी सूखा दिए
उन्होंने करोड़ों लोगों को भूखा मार दिया
बच्चों की सांसे रोक दी
इस तरह हर हत्या को जायज़ बनाने के लिए
कोई न कोई बहाना खोज लिया
उन्होंने इंसानों को गुलाम बनाया
और उसे व्यापार कहा
हम भी शामिल रहें उनके तमाम अपराधों में
हम ख़ामोशी से देखते रहे
सहते रहे सब कुछ

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...