Monday, June 28, 2010

बेवफा बादल

बेवफा बादल  

काले बादल
नभ पर छाये
नए उमंग
मन में जागे
किसान खेतों की और भागे
जंगल में भी मोर नाचे
वाह क्या बादल छाये /
पतझड़  तरु के
आस जागे
जिन्होंने वर्षा के वर मांगे
फिर जीने की चाह में
सूखा तिनका
उठ बैठा
बादल देख
वह खिल उठा
सुखे झरने नदियों ने
प्रिया मिलन सा श्रृंगार  किया
जल की रानी
तड़प उठी
उसमे नई उन्माद उठी /

ढोल नगाड़े
बज रहे
गावों में सब नाच रहे
श्रावण की आश में
मिठाइयाँ बाँट रहे
किन्तु -
मेघ बेवफा निकला
सबकी उम्मीद तोड़ कर निकला
जीवन की चाह जगाकर मन में
बादल भागा नेता की तरह ./

Sunday, June 13, 2010

खाली कैनवास पर

खाली कैनवास पर
यह उदास चेहरा किसका है
वह एक आम भारतीय है
गरीबीरेखा के नीचे वाला.

उसके पास  खड़ी है
सूखे झुर्रियों गालोंवाली
अस्सी बरस की उसकी माँ
और एक जवान बहन.

काम नही मिला उसे
किसी रोज़गार गारंटी में
नेता जी आये थे  एकदिन
उस दीन के झोपडी में
एक रात बिताया था
उस दलित के कुटिया में
नेताजी के साथ उसकी
तस्वीर भी छपी थी
अगले दिन के अख़बारों में
नेताजी ने कहा था -
तुम्हारा वोट बहुमूल्य है
मुझे मत-दान  करना
न समझ था बेचारा
जाकर मतदां केंद्र
दान कर आया
अब उसके पास सिर्फ
अख़बारों के टुकड़े , और
मंत्री जी का वादा शेष है .

जब सो जाता है सारा जहाँ

जब सो जाता है
सारा जहाँ
मैं जगता रहता हूं
अपनी तनहाइयों के साथ .

रात के सन्नाटे में
सुनने का प्रयास करता हूं
निशाचरों की आवाज़
मोहल्ले के चौकीदार की
लाठी की ठक-ठक
जब टकराती है
कानो में आकर
रात की बेवसी को सोचता हूं
सहानुभूति की दरकार नही मुझे
अपनी तनहाइयों में खुश हूं मैं
मेरे अपने--
अब बीते दिनो की बात है

झींगर की झिं - झिं
अब कानो को सुहानी सी लगती है
सन्नाटे को चीरती
रेल की छुक - छुक
बेचैन नही करती मुझे
रातों को जागना अब मुझे अच्छा लगता है .
रात की भी अपनी
सीमा है
तनहाइयों को झेलने की
जी नही मैं -
किसी अमेरिकी कंपनी में कम नही करता
रात में बैठा रहता हूं
अपने कमरे में
आकृतियाँ बनाता रहता हूं
हँसते बच्चों का
रोती हुई एक असहाय माँ  का
और न जाने क्या -क्या
मेरे इर्द - गिर्द घुमते हैं
बीते हुए जीवन  के
सुनहरे दिनों की याद
उभर उठते हैं
मन- मस्तिस्क के मानचित्र पर
इसीलिए अब
सुबह की प्रतीक्षा
नही सुहाता मुझको
केवल रात की तनहाइयाँ
अच्छी लगती है मन को
लोग सो कर जीते हैं
मै जागकर जी रहा हूं .

Friday, June 4, 2010

नही भूलता वह दृश्य

कल शाम बैठा था
मैं नदी के किनारे
मध्यम लहरों को देखता रहा
ख्याल बुनता रहा
लहर टूटते रहे
मेरे ख्याल भी टूटते रहे
लहरों की  तरह .

दूर किनारे के पार
डुबते रवि को देखता रहा
वह मुस्कुराता रहा
मुझे देखकर
और मैं उसे  देख कर .

मेघों के कुछ अंश
खेल रहे थे
शांत नीलाम्बर मैदान पर
साँझ के शांत मिजाज़ का
लुफ्त उठा रहे थे वे

नही भूलता वह दृश्य
मेरे मन में शमा गया है .

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...