Monday, January 29, 2018

महात्मा के लिए

सम्भव है कि
गोडसे के उपासक भी
सुबह तुम्हारी समाधि पर जाएंगे
तुम्हें श्रद्धांजलि देने
बिलकुल वैसे ही जाएंगे
जिस तरह जाते हैं वो
तुम्हारे आश्रम में
तुम्हारे चरखे पर बैठ तस्वीर खिंचवाने के लिए
किन्तु वो कभी भी नहीं कहेगा
गलत था गोडसे |
सुकून से रहो बापू अपनी समाधि में
यहाँ आग लगी हुई है चारों ओर
यह आग फ़ैल रही है तेजी से पूरे मुल्क में
जंगल की आग की तरह
बुझाने की जिम्मेदारी जिन पर थी
अब वे ही इस आग को हवा दे रहे हैं !
आपका चश्मा अब
विज्ञापन के काम आता है
और आपका चरखा
कैलेंडर की तस्वीर के लिए
आपकी छड़ी और घड़ी का पता नहीं मुझे
आपकी बकरी कहीं नहीं मिली
आपके बन्दर चारों ओर घूम रहे हैं किन्तु
सत्य के साथ आपका अनुभव भी तो ऐसा ही था न ?
बापू तुम दुःखी मत होना
हत्या को अब पाप नहीं मानते यहाँ के लोग |
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Monday, January 22, 2018

हक़ीकत से वाकिफ़ होते हुए भी

और एकदिन पड़ा रहूँगा
किसी सड़क पर
सूखे हुए किसी पत्ते की तरह
जानता हूँ
भविष्य का आभास होते हुए भी
विचलित नहीं हुआ हूँ अबतक
ये उस प्रेम का कमाल है शायद
जिसकी कल्पना के दायरे में
केवल तुम्हारा चेहरा है
हक़ीकत से वाकिफ़ होते हुए भी
बहुत रूमानी लगता है मुझे
मेरे प्रेम की काल्पनिक दुनिया |
बिजुरी / २३ जनवरी २०१६

Wednesday, January 17, 2018

मैं थका हुआ एक मजदूर और तुम्हारा प्रेमी हूँ

कितनी नफ़रत
और हिंसा फैल चुकी है
हमारे आस-पास
ख़बरों के शब्दों में विष घुल चुका है
समाचार वाचक भी चिल्ला रहा है 
जैसे वह हमें किसी निज़ाम की तरह हुक्म दे रहा हो
मन बेचैन हो उठता है
तन थक कर चूर होने के बाद भी नींद नहीं आती
आँखें भीग जाती है
और जुबान पर छा जाती है ख़ामोशी
सुबह उठ कर सूरज की किरणों को
ओस की बूंदों को चुमते हुए देखना चाहता हूँ
किन्तु ऐसा हो नहीं पाता
मैं बहुत दिनों से अधूरी पड़ी उस प्रेम कविता को
पूरा करना चाहता हूँ
जिसे तुम्हारे लिए शुरू किया था
पर ऐसा हो नहीं पाता
मेरी सारी इच्छाएं
एक मजदूर की इच्छा है
जो कभी पूरी नहीं होती
जबकि इस दुनिया में
सबसे अधिक श्रम वही करता है
और नगर में पकते शाहीभोज की महक से
अपनी रूह भर लेता है
अब बहुत थक चुका हूँ
विश्राम करना चाहता हूँ
और चाहता हूँ कि
तुम भी कभी भूले से
मुझे याद करो
किन्तु यह ज़रूरी नहीं
तुम मेरी इच्छानुसार कुछ करो
मैं थका हुआ एक मजदूर
और तुम्हारा प्रेमी हूँ
किसी सियासत का
हुक्मरान नहीं हूँ |

Sunday, January 14, 2018

जबकि वादा जीवन भर का था

मैं चाहता हूँ
मुझे भी मिले सज़ा-ए-मौत
लोकतंत्र में
प्रेम करने के अपराध में
किसी राष्ट्रवादी शासक के इशारे पर 
किसी अदालत द्वारा
मेरी फांसी से ठीक पहले
पूछे जल्लाद मुझसे
मेरी आखिरी इच्छा
और मैं कहूँ -
उससे मिलना चाहता हूँ आखिरी बार
जिससे मैंने प्रेम किया
और जिसने छोड़ दिया मेरा साथ
मेरी मौत से पहले
जबकि वादा
जीवन भर का था

रचनाकाल : 15 जनवरी 2017 

रात नाटक पढ़ते हुए

रात नाटक पढ़ते हुए 
मैंने शराब पी
नाटक की नायिका से
अपने प्रेम का इजहार किया |

आज
मैं, 

नाटक से बाहर हूँ ...!


रचनाकाल : जुलाई 2015 

Saturday, January 6, 2018

दर्द ही जब कैफ़ियत हो

दर्द ही जब कैफ़ियत हो
क्या किया जाये !
मेरी वसीयत में
इक तुम्हारा नाम था 
जिसे तुमने जला दिया
जल कर
जीने की पीड़ा
नहीं समझेंगे दानिश्वर |
बच्चों की भाषा भी कब समझते हैं वे
उन्हें संस्कृति के
बादलों ने ढक लिया है |
मैंने प्रेम किया
खुले आकाश तले तुमसे
गवाह है नदी के घाट,
खुली सड़कें
हरे -सूखे पेड़
और वो पनवाड़ी
जिसने तुम्हें बना कर दिया था
मीठा पान पहलीबार |
जिस तरह था भरोसा मेरा
तुम पर
वैसा ही था
उन पर
जिन्हें, दोस्त माना था अबतक
जैसे माना तुम्हें
अपने जीवन का हिस्सा |
मेरे विश्वास को तोड़कर
मुझे सचेत किया तुमने
मैं आभारी हूँ तुम्हारा
दोस्तों !

7 जनवरी 2017 

Friday, January 5, 2018

कविता उन याद आये लोगों के पास है

भीतर की बेचैनी
थके हुए तन को सोने नहीं देती
कमरे में
ठंड ने कुछ इस तरह से
किया है कब्ज़ा 
जैसे कि
उसने भी बहुमत पा लिया है
कम्बल किसी कमज़ोर विपक्ष की तरह
मुझे ताक रहा है !
मैं सोना चाहता हूँ
किन्तु मेरे दिमाग में
बार -बार उभर कर आ रहा है
किसान मजदूर का चेहरा
जिसे अल-सुबह नंगे पैर खेत पर जाना है
उस आदमी का चेहरा याद आ रहा है
जिसे सुबह पानी में उतरना है
अपने परिवार के लिए
इस कंपकंपी सर्दी में खुली सड़क किनारे
घुटनों को पेट पर बाँध कर सोने वाले
लाखों लोगों की अनकही पीड़ा को
किसी ने मुझे ओढ़ने के लिए दिया है
और मैं अपने कमरे में सिगरेट जला रहा हूँ !
अपने कमरे में बैठ कर
ये सब लिख कर
खुद को कवि मान रहा हूँ शायद
पर सच यही है कि
कविता उन याद आये लोगों के पास है
जिन्हें मैं शब्दों में पिरो रहा हूँ

Tuesday, January 2, 2018

बस्तियों में लोग गहरी नींद में सो रहे हैं

साल बदल गया है
किन्तु, 
ज़ुल्म का जश्न जारी है अब भी
सत्ता खुश है
विपक्ष बेहाल है
न्याय की ख़ामोशी नहीं टूटी अब तक 
ज़ख्मों से खून का रिस रहा है लगातर
कान बंद हैं 
चीखें अब सुनाई नहीं देती हमें
सिपाही खड़े हैं सीमा पर शहीद होने को
उनके नाम पर सियासत कायम हैं
दरिया का रंग सुर्ख हो चुका है बहुत पहले
आँखों ने रंगों को पहचानना छोड़ दिया है
सांसे तो चल रही हैं
पर,दिल की धड़कन धीमी पड़ गई है
गाय रंभा रही है नदी के आर -पार
जंगल की आग लगातर फैल रही है
आबादी नज़दीक है
बस्तियों में लोग गहरी नींद में सो रहे हैं
कबीर चीख़ रहे हैं
पर हमने उन्हें सुनना बंद कर दिया है 
राज सभा में शतरंज का खेल जारी है
इस बार अज्ञातवास पर कौन जायेगा
इस पर कोई चर्चा नहीं है कहीं
प्रजा का पलायन जारी है
पर अब राजा न तो अंधा है
न ही बहरा
हाँ, वह नि:संतान ज़रूर है
संतानहीन हो चुके माँ -बाप उससे
अपने बच्चों के लिए इंसाफ़ मांग रहे हैं
और राजा हंस रहा है
उन्हें देख कर !

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...