Wednesday, July 31, 2019

ऐसे में उन्हें जला देना ही उचित होगा शायद

बेअसर हो गयी तमाम कविताओं को
मैंने जला देना बेहतर समझा
शब्दों का ढेर बेजान सा कागज की छाती पर पड़ा है 
लोग बेपरवाह हैं
उन्हें कोई मतलब नहीं कि पड़ोस के घर में आग लगी है
सड़क पर कोई रक्त से भीगा पड़ा है
किसी गौ रक्षक ने भीड़ के सामने उसकी हत्या कर दी है
भीड़ ने उस हत्या की फिल्म बनाई है
बस उस भीड़ ने उसे बचाने के लिए कुछ नहीं किया
उसी सड़क के किनारे बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर देश के प्रधान
बहुत ही स्वच्छ और उज्ज्वल परिधान में खड़े हैं
उस होर्डिंग पर सबसे बड़ी तस्वीर भी उनकी है
और उनके पीछे एक ग्रामीण स्त्री हल्की मुस्कान लिए अपने चेहरे भर के साथ मौजूद हैं
जहाँ एक रसोई गैस का सिलेंडर है ...और लिखा है ... महिलाओं को मिला सम्मान !
'प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना'
सिलेंडर से सम्मान इस बात को समझने की जरूरत है
कि सम्मान के लिए कई उपाय है सत्ता के पास
और सम्मान भी सब्सिडी के साथ !
और सब्सिडी सदा के लिए नहीं होती
माताएं खूब जानती हैं इस बात को
पर कहती नहीं
क्योंकि उनके बोलने से ही हलचल पैदा हो सकती है
इसलिए यहाँ महिलाओं को घुंघट में रहने की सलाह दी जाती है अक्सर
और यह भी बता दिया जाता है कि
'खूब लड़ी मर्दानी वो झाँसी वाली रानी थी '*
(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता )
और भी बहुत कुछ
माने कि सम्मान जो वे अपनी इच्छा से आपको दें
उसी में संतोष रहो , इसी में मर्यादा है
यही उनका मानना है
जरूरत पड़ने पर रानी पद्मावती की कहानी भी सुनायेंगे
वे किसानों को अन्नदाता कह कर संबोधित करेंगे
और अपने हक़ के लिए सड़क पर उतरे तो गोली चलवा देंगे
वे विश्वविद्यालय में पुस्तकालय नहीं तोप लगाने की पैरवी करेंगे
ऐसा बहुत कबाड़ लिख चुका हूँ
और उन्हें कविता मानता आया हूँ
किन्तु अब लगता है केवल शब्दों का ढेर जमा किया है हमने
और अब जब चारों ओर स्वच्छता का नारा है
बापू का चश्मा भी इस अभियान का सिम्बल बना दिया गया है
और कहीं कोई असर नहीं मेरे लिखने का
ऐसे में उन्हें जला देना ही उचित होगा शायद !

Thursday, July 25, 2019

गंभीर

गंभीर है सब
आकाश पर बादल गंभीर हैं
अंधकार गंभीर चारों ओर 
रंभाती गाय गंभीर है
गंभीर है शोर
अदालत में नाचे मोर
चीत्कार
हाहाकार
नहीं गंभीर कोई ललकार
यहाँ हो रहा रोज बलात्कार
यहाँ कोई नहीं गंभीर !
बेलगाम सत्ता
फूहड़ मीडिया
लाचार जनता
तांडव करता महाकाल
शीघ्र आएगा धरती पर अकाल
यहाँ नहीं कोई गंभीर
सत्ता के वीर
हैं अधिक अधीर
युद्ध के लिए
शांति के लिए नहीं कोई गंभीर
नज़रुल पूछ रहे हैं -बलो बीर !

Tuesday, July 23, 2019

तभी तो सपने में अक्सर अपनी प्रेमिकाओं से मिलता हूँ

ऐसा नहीं है कि
मैं सिर्फ मज़ाकिया हूँ
भावुक और संवेदनशील भी हूँ शायद
तभी तो सपने में अक्सर अपनी प्रेमिकाओं से मिलता हूँ
मैं उन्हें पुरानी नहीं कहता
प्रेम और प्रेमिकाएं कभी
पुरानी नहीं होती
अंग्रेजी में ex शब्द भी मुझे पसंद नहीं
मैंने यादों के साथ के दिनों की तस्वीरें भी
जतन से संभाल के रखीं हैं
दल बदलू नेताओं की तरह
अब मैं भी शातिर हो चुका हूँ
आप कह सकते हैं
अपने अनुभव के आधार पर
जबकि मुझे छोड़ जा चुके लोगों ने
मुझे बेवफ़ा कहा है
प्रेम में राजनीति इसे कहते हैं
जबकि रिश्तों में राजनीति बहुत घातक है
रिश्तों का लोकतंत्र ऐसे ही क़त्ल होता है
यह कविता अटकी नहीं थी कहीं
अपच अनुभवों की सघन उल्टी है मेरी

Thursday, July 18, 2019

भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है

चुप्पी साधे सब जीव
सुरक्षित हो जाने के भ्रम में
अंधेरे बिलों में छिप कर
राहत की सांस ले रहे हैं
बाहर आदमखोर भेड़िया
हंस रहा है
इसकी ख़बर नहीं है उन्हें
भेड़िया अब दो पैरों पर चल सकता है
दे सकता है सत्संग शिविर में प्रवचन
सुना सकता है बच्चों को कहानी
शिकार को जाल में फंसाने के लिए
कुछ भी कर सकता है वो
वह अब अपने खून भरे नुकीले पंजों को
खुर पहनकर छिपा कर चलता है
इनदिनों वो तमाम आदमखोर जानवरों का
मुखिया बन चुका है
आप भी जानते हैं कि अब वह गुफा के भीतर
कब और क्यों जाता है
हम बार -बार आगाह कर रहे हैं
कि जंगल में आग लग चुकी है
और आदमखोर भेड़िया अपने साथियों के साथ
मानव बस्तियों की तरफ बढ़ रहा है
अफ़सोस , कि लोग मुझे
आसमान गिरा , आसमान गिरा कहने वाला
खरगोश समझ रहे हैं !

Wednesday, July 17, 2019

जिन्दा रहने के लिए राष्ट्र प्रेम अब अनिवार्य शर्त है !

बरसात हुई है
कुछ खतपतवार तो उगेंगे
कविता के नाम पर
खेत की सफाई के लिए
तैयारी जरुरी है
कवि से पहले
एक बार किसान बनिए
प्यासी धरती के सीने पर पड़ी दरारों को
मिटते देखिये
वर्षों से उदास झुर्रियों वाले बूढ़े किसान के
चेहरे को देखिये
कोई फ़र्क आया क्या ?
सूखे और बरसात के अंतर को समझने के लिए
कवि से अधिक एक किसान का होना होता है
किसान को कवि होते हुए कब देखा , माना है हमने !
जबकि उसके सृजन में ही जीवन का सार है
किसान न सही आप उसे खेतिहर मजदूर ही मान लीजिये
तब शायद कुछ अहसास हो जाए
कि हर बरसात केवल प्रेम कविता के लिए नहीं होती
संघर्ष की एक लम्बी प्रतीक्षा होती है
अवसाद और संघर्ष के सवाल
पानी से नहीं धुलते
प्रेम केवल बरसात में नहीं पलता !
और वैसे भी आज प्रेम के नाम पर
राष्ट्र प्रेम पहली अनिवार्य शर्त बन चुकी है
राष्ट्र जब नागरिक से आगे निकल जाता है
तब प्रेम बचता कहां है
सोच कर देखिये
सिर्फ प्रेमी होने से आप हिंसा के शिकार हो सकते हैं
क्योंकि इस कथित सभ्य समाज में
प्रेम से पहले जाति , धर्म और समुदाय को मान्यता दी जाती है
जाति है कि जाती नहीं
धर्म पीछा छोड़ता नहीं
समाज मान्यता देता नहीं
फिर सत्ता कहती है
किसान निजी प्रेम के कारण मरा है
राज सत्ता या सरकारी पालिसी का कोई हाथ नहीं है
मने साफ़ है कि
सिर्फ प्रेम अब दुःख या मौत का कारण हो गया है
जिन्दा रहने के लिए
राष्ट्र प्रेम अब अनिवार्य शर्त है !

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...