Tuesday, March 29, 2011

अँधेरे में


गहराई रात की 
अँधेरे में 
टिमटिमाते तारों को देखता हूँ 
और याद करता हूँ 
काल कोठरी में कैद 
'दाराशिकोह ' को 
'नजरुल ' को 
भगत सिंह  और राजगुरु को 
और मेरे युग के 
विनायक सेन को 
कहीं किसी उपवन में 
गा रहा है 
नज़रुल का बुलबुल 
विरह गीत 
तभी एका - एक 
बड़ी -बड़ी आँखों के पीछे से 
विद्रोही कवि का 
 प्रेमी हलकी मुस्कान लिए 
खड़े हैं --
फिर विरक्त होकर 
उठा लेते हैं
 रणभेरी  अपने हाथों में 
मैं बतियाने लगता हूँ 
कि--
हे महाप्राण 
मैं आपके साथ जाना चाहता हूँ 
युद्ध के मैदान पर 
फिर सुनने लगता हूँ 
बहादुरशाह जफ़र की ग़ज़ल 
" जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ ......."
दूर शान्तिनिकेतन से 
गुरुदेव कह रहें हैं -
'जोदि तोर डाक सुने केऊ ना आसे, तबे  एकला चलो रे '
और फिर  वेदना भरे दिल से 
बुदबुदाते हैं गाँधी जी -
हे राम -हे राम 
एक असहाय भक्त की तरह //

5 comments:

  1. तारों को देखते हुए इतनी सारी यादों की जी लेना ...बहुत अच्छा लगा ..

    ReplyDelete
  2. bahut hi badhiya Nitya Bhaiya...kafi gahre vichar hain...

    ReplyDelete
  3. कबीर को याद करो और एक को साधो। तो स्वतः ही सब सध जायगा। सौ टिमटिमाते तारों से एक सूर्य अच्छा है, जो सब को जीवन देता है। डॉ अभिजित् जोषी हैदेराबाद विश्व विद्यालय

    ReplyDelete

इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...