Wednesday, May 30, 2012
Tuesday, May 15, 2012
शुद्धता बची है अभी
शुद्धता बची है अभी
हरे –भरे दरख्तों के बीच
मेरे गांव मिट्टी में , हवा में
तभी तो हंसते हैं वृक्ष,
चिड़िया और तालाब का पानी |
षड्यंत्रों की खबर से
दहल उठता है इनका मन
शहरी आगंतुक के
आने की सूचना पा कर
मछलियाँ चली जाती है
जल की गहराई में
काली परछाई से बचने को
सड़के रोक लेती हैं
अपनी सांसे
तुम्हारे गुजर जाने तक |
अतिथि देव: भव :
का अनुसरण कर
मैं बुलाता हूँ, तुम्हे
तुम भी ख्याल रखना इस बात का
ताकि नजरें उठाकर आ सकूं
मैं, फिर इस गांव में ...
Saturday, May 12, 2012
गंगा की स्मृति में
गंगा, मैं जा रहा हूँ
इस साहित्य भूमि से
मन में समाकर
तुम्हारी स्मृति |
फिर देखूंगा तुम्हे
बाबू घाट पर ,हुगली
में |
हैदराबाद में
जब कभी उदास होगा
मेरा मन
बनारस घाटों की
स्मृतियों को उभार लूँगा सीने में
शिवाला घाट से
केदार घाट तक
स्मृतियों की नौका विहार पर
निकल पडूंगा
तुम्हारा धनुषाकार रूप
और भीष्म का अकेलापन
सोचूंगा तब |
तुम्हे याद है न
बेचैनी में अकसर
चला आता था वह तुम्हारे पास ?
कहकर तुमसे
अपनी वेदना
हो जाता था मुक्त तुम्हारा पुत्र
क्षण भर के लिए ?
मैं भी मुक्त होना चाहुंगा
सभी वेदनाओं से |
तुम्हारी पीड़ा का
अहसास है मुझे
अब भी बहते है
सभ्यता के
शव ,
तुम्हारी छाती पर
उड़ेलकर अपने पापों का ढेर
हम खोजते हैं
स्वर्ग का मार्ग ….
Friday, May 11, 2012
विनम्र होने पर अपने भी चीर देते हैं सीना .....
गंगा अभी
शांत है,
किन्तु गर्म है
धूप से |
नावे थके हुए
मजदूरों की तरह
किनारे पर पड़ी हैं |
तापमान गिरने के साथ
गंगा की छाती पर
फिर करेंगे
ये सभी जलक्रीड़ा|
विनम्र होने पर
अपने भी चीर देते हैं सीना .....
किन्तु गर्म है
धूप से |
नावे थके हुए
मजदूरों की तरह
किनारे पर पड़ी हैं |
तापमान गिरने के साथ
गंगा की छाती पर
फिर करेंगे
ये सभी जलक्रीड़ा|
विनम्र होने पर
अपने भी चीर देते हैं सीना .....
Tuesday, May 8, 2012
भर मन से/ विष्णुचंद्र शर्मा' की एक कविता
चाँद
पूछता है :
‘कैसी यात्रा है |
किससे मिले ,
किसे भर मन से
गले लगाया ?
किसकी खोजी
जीवन धारा
दिल भर आया |’
चाँद
भरे मन से
कोहरे में
डूबा....
८/०५/१२
५:१८ सुबह
--विष्णुचंद्र शर्मा
Sunday, May 6, 2012
कवि अरुणाभ
गुवाहाटी के
वशिष्ठ आश्रम के
कवि अरुणाभ
लाल होंठों पर लिए
शब्दों के ताप
ह्रदय में लिए प्रेम का प्रताप
मुस्कुराते हैं
मेरे ख्यालों में
तुमसे कभी मिला था
सहरसा में ,चैनपुर में
आज भी मिलता हूँ तुमसे
गुजरकर तुम्हारी रचनाओं से
सुनो, मित्र अरुणाभ
यूँ ही
बढते रहना सृजन पथ पर
निरंतर
यूँ ही चमको तुम
अरुण की भ्रांति.............
वशिष्ठ आश्रम के
कवि अरुणाभ
लाल होंठों पर लिए
शब्दों के ताप
ह्रदय में लिए प्रेम का प्रताप
मुस्कुराते हैं
मेरे ख्यालों में
तुमसे कभी मिला था
सहरसा में ,चैनपुर में
आज भी मिलता हूँ तुमसे
गुजरकर तुम्हारी रचनाओं से
सुनो, मित्र अरुणाभ
यूँ ही
बढते रहना सृजन पथ पर
निरंतर
यूँ ही चमको तुम
अरुण की भ्रांति.............
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युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....
. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
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सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...
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. 1. मैं युद्ध का समर्थक नहीं हूं लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी और अन्याय के खिलाफ हो युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो जनांदोलन से...
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बरसात में कभी देखिये नदी को नहाते हुए उसकी ख़ुशी और उमंग को महसूस कीजिये कभी विस्तार लेती नदी जब गाती है सागर से मिलन का गीत दोनों पाटों को ...