Monday, July 23, 2012

तुम इतनी टूट चुकी हो ...?


मैं , अक्सर
तुम्हे सोचता हूँ
खोजता हूँ
हवा में , पानी में
पहाड़ों में, जंगलों में
मिट्टी में
तुम्हे पाता हूँ
हर बार टुकड़ों में
हे प्रकृति
तुम इतनी टूट चुकी हो ...


सिमटकर रह गई हो
सिर्फ किताबों में ..?

दूषित हो चूका है 
जल ,वायु
मिट्टी खो चुकी है खुशबू
हार गए जंगल, लड़ते –लड़ते
तुम्हारे बनाये हुए इंसानों से

क्या फिर कभी मिलोगी
अपने असली रूप में
हम इंसानों की
मौजूदगी में ?

6 comments:

  1. क्या कोई रंगिनी फिर मुक्त अंगड़ाई ले सकेगी ?

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  2. क्यूँ नहीं ,यदि हम चाहें....मनाये उसे....दुलारें...बहलायें.....
    अवश्य मिलेगी...वैसे ही खिलखिलाती..

    अनु

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  3. क्या फिर कभी मिलोगी
    अपने असली रूप में
    हम इंसानों की
    मौजूदगी में ?
    गहन भाव ...

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  4. bahut sundr kavita h nitya ji ,yatha sthiti se avgt krwaya h aapne iss kavita ke zariye...mgr yadi manushya wqt rahte abhi b chet jaye to prakriti apne sundrtm roop me fir se mahk utthegi...anyatha aap jaise kaviyon ,shayro aur nzmkaro ki kavitaon aur nzmo aur geeto me ...ya fir kisichitrkar ke rango se bhre canvas pr hi sahi main (prakriti)tume fir milungii...











    9prakr

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    1. बहुत शुक्रिया अमन जी

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इक बूंद इंसानियत

  सपनों का क्या है उन्हें तो बनना और बिखरना है मेरी फ़िक्र इंसानों की है | कहीं तो बची रहे आँखों में इक बूंद इंसानियत तब हम बचा लेंगे इस धरती...