किसी को नहीं दिखता
जमीन के नीचे
उबलते लावा का रंग
अब पढ़ते हैं
तस्वीर में
मेरा चेहरा
बढ़ी हुई दाढ़ी
और ....
कुछ नहीं
मने मेरा कवि मर गया है
खो गया है कहीं
न
मैं तो अपने लोगों के साथ सिंघु बॉर्डर पर हूँ
टिकरी पर हूं
मैं चीनी और पाकिस्तानी सीमा पर भी हूँ
ये सत्ता मुझे पहचान कर भी पहचान नहीं पाती है ।
कारण आप जानते हैं
इंक़लाब ज़िंदाबाद कहने के लिए
56 इंची सीना नहीं चाहिए
सिर्फ जागरूक नागरिक होना काफी है ।
वाह
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-12-20) को "कुहरा पसरा आज चमन में" (चर्चा अंक 3916) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
शानदार लेखन
ReplyDeleteसही है
ReplyDeleteहर आवाज में
हर चीख़ में
हर प्रार्थना में
हर स्वाभिमान में
हर दहाड़ में
जिम्मेदार व जागरूक नागरिक है।
गजब का लेखन।
नई रचना- समानता
संवेदनशील
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteइंक़लाब ज़िंदाबाद कहने के लिए
ReplyDelete56 इंची सीना नहीं चाहिए
सिर्फ जागरूक नागरिक होना काफी है ।
सशक्त लेखन ।
ReplyDeleteवाह! बहुत सुंदर।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteबहुत गहरा सृजन ...
ReplyDeleteइस आम इंसान को कोई देख तो पाए ... काश ...
bahut gahri kavita... samay ki maang hai ye!! badhai aapko.
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