Monday, August 28, 2017

वक्त हम पर हँस रहा है

हादसों के इस दौर में
जब हमें गंभीर होने की जरूरत है
हम लगातर हँस रहे हैं !
हम किस पर हँस रहे हैं
क्यों हंस रहे हैं
किसी को नहीं पता
दरअसल हम खुद पर हँस रहे हैं
ऐसा लग सकता है आपको
किन्तु सच यह है कि
वक्त हम पर हँस रहा है
घटनाएं लगातर अपनी रफ़्तार से घटती जा रही हैं
रोज मारे जा रहे हैं मजबूर लोग
कोई नहीं है उन्हें बचाने के लिए
हमारे विवेक पर सत्ता हंस रही है
बरबादी और मौत के इस युद्ध काल में
हमारी आवाज़ कैद हो चुकी है
हम चीखते भी हैं तो
कोई सुन नहीं पाता !
अब तोड़ने होंगे ध्वनिरोधी शीश महल को
इस हंसी को अब थमना होगा
वरना हंसी की गूंज और तीव्र हो जाएगी

Thursday, August 10, 2017

इस नये इतिहास में हमारा स्थान कहाँ होगा

हक़ीकत की जमीन से कट कर
हमने आभासी दुनिया में बसेरा बना लिया है
हवा में दुर्गंध फैलता जा रहा है
हमने सांसों का सौदा कर लिया है
जमीन धस रही है 
और हम आसमान में उड़ना चाहते हैं
पर वो आसमान कहाँ है
जहाँ पंख फैला कर कोई परिंदा भी अब आज़ादी से उड़ सके !
हम अपनी भाषा से दूर हो गये हैं
हमने 'एप्प' नामक मास्टर से नई भाषा सीख ली है
यह भाषा जो हमारी पहचान को मिटाने में सक्षम है
आजकल हम उसी में बात करते हैं
देश की सत्ता आज़ादी का पर्व मनाने को बेचैन है

ऐसे समय में नागरिक खोज रहा है
अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार
हम बाहर की दुनिया से इस कदर कट गये हैं कि
न धूप की खबर है न ही पता है कि चांदनी कब फैली थी आखिरी बार
दूरभाष यंत्र 'फोन' से आदेश पर नमक तक घर पहुँच जाता है
हम पानी का स्वाद भूलने लगे हैं
कहने सुनने के तमाम आधुनिक उपकरणों के इस युग में
हम भूल गये हैं कि
हम कहना क्या चाहते हैं
हम संविधान के पन्ने पलट रहे हैं
गैजस्ट्स को देशी भाषा में क्या कहते हैं
मुझे नहीं पता
आपको पता हो शायद
झारखण्ड की सुदूर पहाड़ी पर बसे आदिवासियों को
नहीं मिल रहा है सरकारी राशन
हमें न इसकी खबर है न ही परवाह
हम पोस्ट करते जा रहे हैं अपनी पसंद की बातें
रंग-बिरंगी पटल पर जिन्हें खूब सराहा जा रहा है
हम 'लाइक' और टिप्पणियों (कमेंट्स ) की गिनती कर रहे हैं
एक तरफ़ा मन की बात के इस दौर में
दूसरों की आवाज़ हमारे कानों तक नहीं पहुँच पाती
हमारा जीवन-मृत्यु एक नम्बर पर निर्भर हो गया है
उसे ही जीवन का आधार कहा गया है !
घाटी -घाटी का इतिहास बदल रहा है
नये इतिहास गढ़े जा रहे हैं
इस नये इतिहास में हमारा स्थान कहाँ होगा
किसी को पता है क्या ?

Saturday, August 5, 2017

हमारी इस कमज़ोरी को क़ातिल खूब समझता है

ऐसा नहीं है कि
क़त्ल से पहले क़ातिल ने चेताया नहीं था उन्हें
यकीन न हों तो पढ़ लीजिये फिर से
रोहित वेमुला की आखिरी चिठ्ठी
और यदि याद हो 
अख़लाक़,
पहलू खान
और जुनैद का चेहरा पढ़िए
आपको पता चल जायेगा कि
क़ातिल ने क़त्ल से पहले खूब डराया था उन्हें
जैसे कभी मार दिए गये थे सुकरात
गाँधी तो मांसाहारी नहीं थे
फिर भी उनकी हत्या हुई थी खुली सड़क पे
और गाँधी वैष्णव थे !
क़ातिल वजह नहीं खोजता क़त्ल से पहले
हत्या से पहले वह आँखों में झाँक कर नहीं देखता
वह सिर्फ मारता है
काटता है
यही उसका पेशा है
वह ईमानदार है अपने पेशे के प्रति
और हम ....
न तो ईमानदार हैं अपने उसूलों के प्रति
न ही हम वफ़ादार हैं अपने वादों के प्रति
हम हर क्षण बदलते रहते हैं
अपनी जरूरतों के अनुसार
हमारी जरूरतें क्षण -क्षण बदलती है
हमारी इस कमज़ोरी को
क़ातिल खूब समझता है
और मन ही मन मुस्कुराता !

Friday, August 4, 2017

एक चिड़िया आकाश पर

अत्याचार,
शोषण -दमन
और तानाशाह के खिलाफ़
हम कविता लिख रहे हैं
नदी किनारे आखिरी वृक्ष मौन खड़ा है
एक चिड़िया आकाश पर फैले
काले धुंए से लड़ रही है !

Thursday, August 3, 2017

तुम मेरा महाकाव्य हो

मैं एक हारा हुआ व्यक्ति हूँ 
इसलिए तुम्हें खोने से डरता हूँ 
तुमने जब 
मुझे 'कवि' कह कर संबोधित किया 
मैंने खुद को तुम्हारा कवि कहा 
तुम्हें छूना चाहता हूँ
पर,
तुम्हारी नाजुकता से डरता हूँ
तुम मेरा महाकाव्य हो |


रचनाकाल : 4 अगस्त 2016 (posted on facebook )

हमसे हुआ नहीं ऐसा

वे चाहते थे कि
मैं भी उनकी भाषा में बोलूं
न बोल सकूं तो कम से कम उनकी भद्दी भाषा का समर्थन करूँ
हमसे हुआ नहीं ऐसा
हम न उनकी भाषा में बोल सकें 
न ही उनका समर्थन कर सकें
उन्हें आग लग गई
उनके पास भी गौ रक्षकों की एक पोषित भीड़ है
जो कभी भी
कहीं भी किसी भी विरोधी की हत्या कर सकती है
पीट कर न सही
अपनी भद्दी भाषा में वे किसी की हत्या करने में सक्षम हैं
मैंने अपना दरवाज़ा बंद कर दिया उनके लिए
उनके डर से नहीं
अपनी भाषा को बचाने के लिए
हम नहीं गा सकते जयगान
उन्होंने मुझे कुंठित कहा
गद्दार भी
जबकि हमने उनका नमक कभी नहीं खाया
सत्ता के कई रूप हैं
पहचानने का विवेक होना चाहिए |

Wednesday, August 2, 2017

कविता मेरी मिट्टी में छिपी हुई है

कविता कहाँ है उन्हें नहीं पता 
उन्होंने नहीं देखा खेत में किसान को
नहीं देखा उन्होंने पसीने से भीगे हुए मजदूर के बदन को
कुम्हार के चाक पर गढ़ते नये सृजन के बारे में नहीं पता उन्हें
तभी पूछा गया यह सवाल 
माँ की गोद में खिलखिलाते शिशु की हंसी को महसूस नहीं किया होगा शायद
बागों में जो फूल खिले हैं
उसमें भी नहीं मिली उन्हें कविता
पहाड़ से निकलती नदी की कल -कल में कविता को खोज नहीं पाए हैं वे
आकाश पर उड़ते पंछियों से पूछा नहीं उन्होंने आज़ादी का मतलब
नफ़रत के सौदागर कभी समझ नहीं पाए प्रेम का स्वाद
और पूछते हैं सवाल
कविता कहाँ है ?
कविता मेरी मिट्टी में छिपी हुई है
बारिश के बाद सौंधी खुशबू के साथ बाहर निकलती है
और मुझे महका देती है |

बेअसर हो गयी तमाम कविताओं को

बेअसर हो गयी तमाम कविताओं को
मैंने जला देना बेहतर समझा
शब्दों का ढेर बेजान सा कागज की छाती पर पड़ा है
लोग बेपरवाह हैं
उन्हें कोई मतलब नहीं कि पड़ोस के घर में आग लगी है 
सड़क पर कोई रक्त से भीगा पड़ा है
किसी गौ रक्षक ने भीड़ के सामने उसकी हत्या कर दी है
भीड़ ने उस हत्या की फिल्म बनाई है
बस उस भीड़ ने उसे बचाने के लिए कुछ नहीं किया
उसी सड़क के किनारे बड़ा सा होर्डिंग लगा है जिस पर देश के प्रधान
बहुत ही स्वच्छ और उज्ज्वल परिधान में खड़े हैं
उस होर्डिंग पर सबसे बड़ी तस्वीर भी उनकी है
और उनके पीछे एक ग्रामीण स्त्री हल्की मुस्कान लिए अपने चेहरे भर के साथ मौजूद हैं
जहाँ एक रसोई गैस का सिलेंडर है ...और लिखा है ... महिलाओं को मिला सम्मान !
'प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना'
सिलेंडर से सम्मान इस बात को समझने की जरूरत है
कि सम्मान के लिए कई उपाय है सत्ता के पास
और सम्मान भी सब्सिडी के साथ !
और सब्सिडी सदा के लिए नहीं होती
माताएं खूब जानती हैं इस बात को
पर कहती नहीं
क्योंकि उनके बोलने से ही हलचल पैदा हो सकती है
इसलिए यहाँ महिलाओं को घुंघट में रहने की सलाह दी जाती है अक्सर
और यह भी बता दिया जाता है कि
'खूब लड़ी मर्दानी वो झाँसी वाली रानी थी '*
(सुभद्राकुमारी चौहान की कविता )
और भी बहुत कुछ
माने कि सम्मान जो वे अपनी इच्छा से आपको दें
उसी में संतोष रहो , इसी में मर्यादा है
यही उनका मानना है
जरूरत पड़ने पर रानी पद्मावती की कहानी भी सुनायेंगे
वे किसानों को अन्नदाता कह कर संबोधित करेंगे
और अपने हक़ के लिए सड़क पर उतरे तो गोली चलवा देंगे
वे विश्वविद्यालय में पुस्तकालय नहीं तोप लगाने की पैरवी करेंगे
ऐसा बहुत कबाड़ लिख चुका हूँ
और उन्हें कविता मानता आया हूँ
किन्तु अब लगता है केवल शब्दों का ढेर जमा किया है हमने
और अब जब चारों ओर स्वच्छता का नारा है
बापू का चश्मा भी इस अभियान का सिम्बल बना दिया गया है
और कहीं कोई असर नहीं मेरे लिखने का
ऐसे में उन्हें जला देना ही उचित होगा शायद !

युद्ध की पीड़ा उनसे पूछो ....

. 1.   मैं युद्ध का  समर्थक नहीं हूं  लेकिन युद्ध कहीं हो तो भुखमरी  और अन्याय के खिलाफ हो  युद्ध हो तो हथियारों का प्रयोग न हो  जनांदोलन से...