उदास होकर
रोना चाहता था
तुम्हारी याद में
हो न सका
खो गया स्मृतियों में
दुर्गापुर स्टेशन में चाय पीने लगा
ट्रेन की प्रतीक्षा में
अस्सी घाट पर सेल्फी लेने में खो गया
संकट मोचन मंदिर के बंदरों को
हलवा खिलाते
देखता रहा तुमको
विश्वनाथ के मठ में ठगों को जमा देखा
भांग का गोला खाए बिना नौकाओं को
झूमते देखा गंगा की छाती पर
मुक्ति भवन में जगह नहीं बची थी मेरे लिए
जंगल बुक के मोगली को देखा
शेर खान से लड़ते हुए
खुले आकाश तले मुझे चूमते हुए
रिक्शे वाले ने देखा तुमको
अस्सी घाट की कुल्हड़ वाली चाय की गर्माहट
मेरी सांसों से बहने लगी
बिछड़ने से पहले
तुम्हारा अंतिम आलिंगन जैसा
अब बनारस उजड़ गया है
विकास की आंधी में
बाकी है मुझमें बनारस का खुला घाट
और तुम्हारे स्पर्श का अहसास
शांत है गंगा
बेचैन हैं घाट
उन्हें हमारी ग़ैर हाज़री खलती होगी
पान चबाये तुम्हारे सुर्ख़ होंठ
क्यों उदास है आज ?
इस सवाल का जवाब नहीं है मेरे पास
जबकि ख़बर मिली है
तुम खुश हो अपनी दुनिया में !
यहाँ एक पुल गिरा था
दब कर मर गए कई लोग
हम ज़िन्दा हैं
यादों के सहारे
यहाँ एक पुल गिरा था
दब कर मर गए कई लोग
हम ज़िन्दा हैं
यादों के सहारे
बहुत कुछ गिरना अभी बाकी है। सुन्दर।
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 540वीं जयंती - गुरु अमरदास और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteअब बनारस उजड़ गया है
ReplyDeleteविकास की आंधी में
बाकी है मुझमें बनारस का खुला घाट
और तुम्हारे स्पर्श का अहसास
...बहुत भावपूर्ण और सटीक अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर