साथी अब हाथ नही बढाता
साथी अब हाथ खीचता है पीछे
साथी अब जान चुके हैं
बाजारवाद - पूंजीवाद का स्वाद ।
उसे शायद लगा है
मीठा इसका स्वाद
तभी तो ख़ुद को बेचकर
वह सपने खरीदने लगा है ।
Saturday, October 31, 2009
पहचान खोने लगा हूँ
अपनी सफलताओं , उपलब्धियों को
गिनना चाहता हूँ
कुछ नही
केवल शून्य पाता हूँ ।
निराश नही मैं
किंतु
ख़ुद को पराजित पाता हूँ मैं ।
रोज़ ख़ुद को देखता हूँ
आईने में
अपना चेहरा
बदला - बदला पाता हूँ मैं ।
अपनी पहचान खोने लगा हूँ मैं ।
गिनना चाहता हूँ
कुछ नही
केवल शून्य पाता हूँ ।
निराश नही मैं
किंतु
ख़ुद को पराजित पाता हूँ मैं ।
रोज़ ख़ुद को देखता हूँ
आईने में
अपना चेहरा
बदला - बदला पाता हूँ मैं ।
अपनी पहचान खोने लगा हूँ मैं ।
मेरे जन्म की सज़ा
शायद यही सज़ा है
इसी तरह जीना है
उम्र भर मुझे
जन्म जो लिया मैंने
इस युग में
इस देश में ।
सदियों पहले
गौतम आए इस देश में
मोक्ष की तलाश में
उन्हें मिला सत्य
बन गए बुद्ध
फिर आए कई
गए कई
इस देश में
आने और जाने का सिलसिला
यूँही जारी रहा
अब मैं हूँ आया
जैसे आए हजारों
मेरे साथ
मेरे बाद
मैं जाना चाहता हूँ
बहुत दूर
जहाँ मिले मुझे आत्म ज्ञान
मिले जहाँ सबको सम्मान
जहाँ न हो कोई अपमान ।
किंतु
शायद ऐसी कोई
जगह नही बची
इस धरा पर आज
और
मुझे
इसी तरह जीना है
इस युग में ।
इसी तरह जीना है
उम्र भर मुझे
जन्म जो लिया मैंने
इस युग में
इस देश में ।
सदियों पहले
गौतम आए इस देश में
मोक्ष की तलाश में
उन्हें मिला सत्य
बन गए बुद्ध
फिर आए कई
गए कई
इस देश में
आने और जाने का सिलसिला
यूँही जारी रहा
अब मैं हूँ आया
जैसे आए हजारों
मेरे साथ
मेरे बाद
मैं जाना चाहता हूँ
बहुत दूर
जहाँ मिले मुझे आत्म ज्ञान
मिले जहाँ सबको सम्मान
जहाँ न हो कोई अपमान ।
किंतु
शायद ऐसी कोई
जगह नही बची
इस धरा पर आज
और
मुझे
इसी तरह जीना है
इस युग में ।
बापू के सपने
आजाद भारत का जो सपना
देखा था बापू ने
काटा है उसे देश के
वर्तमान नेताओं के चाकू ने ।
मरते हैं लोग
पकते हैं भोग राजधानी में
मानते हैं शोक दिखाव के ।
अनाज भरे हैं देश के
गोदामों में , फिर
चूल्हा किउन
ठंडा हैं झोपडो में ?
धुआं किउन भरा है उनके फेफडो में
जो रहते हैं उन झोपडो में ?
देश की जो जनता हैं
उनमे नही एकता है
वे लड़ते हैं
हम लड़ते हैं आपस में
कभी मन्दिर पर
कभी मस्जिद पर ।
उगता है रवि
लिखते हैं कवि
बिकते हैं सभी ।
बोलते हैं झूट
करते हैं लूट
खुले आम
सरेआम
बढ़िया करते हैं
बस यही काम
विदेशियों से करते हैं
देश का मोल भाव ।
देखा था बापू ने
काटा है उसे देश के
वर्तमान नेताओं के चाकू ने ।
मरते हैं लोग
पकते हैं भोग राजधानी में
मानते हैं शोक दिखाव के ।
अनाज भरे हैं देश के
गोदामों में , फिर
चूल्हा किउन
ठंडा हैं झोपडो में ?
धुआं किउन भरा है उनके फेफडो में
जो रहते हैं उन झोपडो में ?
देश की जो जनता हैं
उनमे नही एकता है
वे लड़ते हैं
हम लड़ते हैं आपस में
कभी मन्दिर पर
कभी मस्जिद पर ।
उगता है रवि
लिखते हैं कवि
बिकते हैं सभी ।
बोलते हैं झूट
करते हैं लूट
खुले आम
सरेआम
बढ़िया करते हैं
बस यही काम
विदेशियों से करते हैं
देश का मोल भाव ।
Thursday, October 29, 2009
बकरा
बकरे ही किउन
होते हैं कुर्बान ?
जिसके न नुकीले पंजे हैं
न ही पैने दांत ।
यह पक्का है काटनेवाला
आँखों की भाषा नही समझता
और बकरा सिर्फ़ आँखों से बोलता है
कटने से पहले ।
किसी भी बकरे को
शहीदों की सूची में नही डाला जाता
बकरा जो ठहरा ।
आदमी तो आदमी
देवता भी खुश होतें हैं
बकरों की बलि से
वह रे देवता ।
हलाल करो या
झटका दो
तड़पना तो पड़ता है
दर्द तो होता है मरने में
जो काटता है उसे
दर्द का अहसास क्या ?
सोचता होगा
बकरा ही तो है
इसका तो जन्म ही हुआ है
कुर्बानी के लिए
बिना बलि
बिना कुर्बानी के
बकरा जीवन व्यर्थ है ।
कितने नसीब वाले होतें हैं
वे बकरे जो
बलि होते है
जो कुर्बान होतें हैं
देवताओं के लिए ।
ऐसी बात नही की
बकरे का सम्मान नही होता
खूब खिलाया जाता है
पूजा कर मंत्र पड़े जाते हैं
कलमें पड़ी जाती है
बलि से पहले
जैसे बकरा
समझता हो
यदि बकरा समझदार होता
तो घास थोड़े खाता ?
क्या अपने देखा किसी
इन्सान को घास खाते ?
होते हैं कुर्बान ?
जिसके न नुकीले पंजे हैं
न ही पैने दांत ।
यह पक्का है काटनेवाला
आँखों की भाषा नही समझता
और बकरा सिर्फ़ आँखों से बोलता है
कटने से पहले ।
किसी भी बकरे को
शहीदों की सूची में नही डाला जाता
बकरा जो ठहरा ।
आदमी तो आदमी
देवता भी खुश होतें हैं
बकरों की बलि से
वह रे देवता ।
हलाल करो या
झटका दो
तड़पना तो पड़ता है
दर्द तो होता है मरने में
जो काटता है उसे
दर्द का अहसास क्या ?
सोचता होगा
बकरा ही तो है
इसका तो जन्म ही हुआ है
कुर्बानी के लिए
बिना बलि
बिना कुर्बानी के
बकरा जीवन व्यर्थ है ।
कितने नसीब वाले होतें हैं
वे बकरे जो
बलि होते है
जो कुर्बान होतें हैं
देवताओं के लिए ।
ऐसी बात नही की
बकरे का सम्मान नही होता
खूब खिलाया जाता है
पूजा कर मंत्र पड़े जाते हैं
कलमें पड़ी जाती है
बलि से पहले
जैसे बकरा
समझता हो
यदि बकरा समझदार होता
तो घास थोड़े खाता ?
क्या अपने देखा किसी
इन्सान को घास खाते ?
Tuesday, October 27, 2009
वर्दी वालों की हवा
खाकी का डर
आज भी जारी है बदस्तूर
मरती हैं आज भी जनता सरेआम बेक़सूर ।
आज भी करते हैं उन्हें हम
जी हजूर - जी हजूर
आज है जनता मजबूर
पहले से अधिक ।
गोरों की गुलामी बेहतर थी
इस बदतर आज़ादी से
तब गुलामी का बहाना था
आज़ादी का क्या बहाना ?
वेरिफिकेशन , पासपोर्ट और सब
जो हैं उनके हाथों में
होता नही कुछ भी
विना रिश्वत के ।
धरती के देवता समझते ख़ुद को मेरे देश के
खाकी वाले ।
उन्हें आता है
जब कोई बेक़सूर असहाय होकर
मांगता है अपने प्राणों की भीख
उनके आगे हाथ जोड़कर ।
ले जाकर थाने उसे
करते हैं उसकी पिटाई
गुजरात , मुंबई और पूरा भारत
गवाह है
मेरे देश में वर्दी वालों की हवा है ।
मेरा जीवन
मेरा जीवन
हादसों का एक तालाब है
और मैं उसमें
एक मछली की तरह
तैर रहा हूँ ।
गीत कई गाएं हैं मैंने
किंतु
बिना सुर ताल के
मेरा जीवन हादसों का जाल है
हर कदम - हर साँस पर
संघर्ष की माया जाल है ।
चक्रवूह की तरह
मुझे हादसों ने घेरा है .
हादसों का एक तालाब है
और मैं उसमें
एक मछली की तरह
तैर रहा हूँ ।
गीत कई गाएं हैं मैंने
किंतु
बिना सुर ताल के
मेरा जीवन हादसों का जाल है
हर कदम - हर साँस पर
संघर्ष की माया जाल है ।
चक्रवूह की तरह
मुझे हादसों ने घेरा है .
हे मनुष्यों के देवता
हे मनुष्यों के देवता
मैं तुम्हे स्वीकार नही करता
हो सकता है , शायद
मैं मनुष्य नही ।
या फिर
तुम्हारे अस्तित्व पर
मुझे यकीन नहीं
कारण कुछ भी हो
यह सच है
मैं नास्तिक हूँ ।
मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करता , किउंकि
मैंने देखा है तुम्हारे
मंदिरों के पायदानो पर
लोगों को मरते हुए ।
तुम तो रक्षक थे
सर्वशक्तिमान थे उनके लिए ?
किउन नहीं बचाया उन्हे
अकाल मृतु से ?
मरते किउन हैं
वो हजारों मासूम
जीने से पहले
पोषण की कमी से ?
तुम तो अन्न दाता हो उनके लिए ।
बम जो फटे
बाजार में
गुन्हेगार बचे किउन ?
बेक़सूर मरे किउन ?
तुम तो काल के बिनाशक हो
सवाल और भी हैं
तुम्हारे होने पर
तुम्हारी शक्ति पर
मेरी ओर से ।
मंदिरों पर नहीं केवल
मस्जिदों में भी
और
गिरजों में भी
तुम्हारे सजदे के वक्त
उडे चिथड़े तुम्हारे बन्दों के
खून से लथपथ शवों से
तुम्हारे इवादतगाह हुए नापाक
कैसे करोगे उन्हें पाक ?
इसीलिए मैं नास्तिक बन गया हूँ .
मैं तुम्हे स्वीकार नही करता
हो सकता है , शायद
मैं मनुष्य नही ।
या फिर
तुम्हारे अस्तित्व पर
मुझे यकीन नहीं
कारण कुछ भी हो
यह सच है
मैं नास्तिक हूँ ।
मैं तुम्हे स्वीकार नहीं करता , किउंकि
मैंने देखा है तुम्हारे
मंदिरों के पायदानो पर
लोगों को मरते हुए ।
तुम तो रक्षक थे
सर्वशक्तिमान थे उनके लिए ?
किउन नहीं बचाया उन्हे
अकाल मृतु से ?
मरते किउन हैं
वो हजारों मासूम
जीने से पहले
पोषण की कमी से ?
तुम तो अन्न दाता हो उनके लिए ।
बम जो फटे
बाजार में
गुन्हेगार बचे किउन ?
बेक़सूर मरे किउन ?
तुम तो काल के बिनाशक हो
सवाल और भी हैं
तुम्हारे होने पर
तुम्हारी शक्ति पर
मेरी ओर से ।
मंदिरों पर नहीं केवल
मस्जिदों में भी
और
गिरजों में भी
तुम्हारे सजदे के वक्त
उडे चिथड़े तुम्हारे बन्दों के
खून से लथपथ शवों से
तुम्हारे इवादतगाह हुए नापाक
कैसे करोगे उन्हें पाक ?
इसीलिए मैं नास्तिक बन गया हूँ .
Monday, October 26, 2009
डायरी
मैं जिस डायरी में
लिख रहा हूँ
यह कविता
यह तुम्हरी है ।
इस डायरी की तरह , कभी
मैं भी
तुम्हारा हुआ करता था ।
आज न यह डायरी तुम्हारे पास है
और
न ही मैं तुम्हारे पास हूँ ।
इस डायरी को
जब छोड़ा था तुमने मेरे पास
खाली था इसका हर पन्ना
बिलकूल मेरी तरह ।
इस डायरी का हर पन्ना तो
मैंने भर दिया है
लिख -लिख कर कवितायेँ
किंतु
मैं आज भी खाली हूँ
बिलकूल पहले की तरह .
लिख रहा हूँ
यह कविता
यह तुम्हरी है ।
इस डायरी की तरह , कभी
मैं भी
तुम्हारा हुआ करता था ।
आज न यह डायरी तुम्हारे पास है
और
न ही मैं तुम्हारे पास हूँ ।
इस डायरी को
जब छोड़ा था तुमने मेरे पास
खाली था इसका हर पन्ना
बिलकूल मेरी तरह ।
इस डायरी का हर पन्ना तो
मैंने भर दिया है
लिख -लिख कर कवितायेँ
किंतु
मैं आज भी खाली हूँ
बिलकूल पहले की तरह .
Sunday, October 25, 2009
मेरा घर
मैं जैसे जीता हूँ
कह नही सकता
लिख नही सकता
मैं कैसे जीता हूँ ।
मैं जिस घर में रहता हूँ
वह मेरा है
मैं ऐसा सोचता हूँ
वह घर नही सोचता ऐसा
मैं सोचता हूँ जैसा ।
वे सभी मेरे अपने हैं
जो उस घर में रहते हैं
मैं उनका अपना नही
बन सका आजतक
वह घर
जो दिवारओं घिरा है
वो दिवार
जो मूक हैं
सदिओं से
मैं भी मूक रहना चाहता हूँ
उसी तरह
कुछ भी कहना नही चाहता हूँ
उस घर के बारे में
किउंकि
वहां सब मेरे अपने हैं
जिस घर में मैं रहता हूँ .
कह नही सकता
लिख नही सकता
मैं कैसे जीता हूँ ।
मैं जिस घर में रहता हूँ
वह मेरा है
मैं ऐसा सोचता हूँ
वह घर नही सोचता ऐसा
मैं सोचता हूँ जैसा ।
वे सभी मेरे अपने हैं
जो उस घर में रहते हैं
मैं उनका अपना नही
बन सका आजतक
वह घर
जो दिवारओं घिरा है
वो दिवार
जो मूक हैं
सदिओं से
मैं भी मूक रहना चाहता हूँ
उसी तरह
कुछ भी कहना नही चाहता हूँ
उस घर के बारे में
किउंकि
वहां सब मेरे अपने हैं
जिस घर में मैं रहता हूँ .
Tuesday, October 6, 2009
इन्सान समझ नही पता है
शाम को
आकाश में जब
सूरज ढलता है
याद दिलाता है कि
जीवन का सच क्या है
इन्सान तो बेकार ही
भाग रहा है
बिना किसी उद्देशेय के
उसे मालूम ही नही कि
उसे जाना कहाँ है
इन्सान को रोज
सिखाता है
आकाश का सूरज
इन्सान समझ नही पता है.
आकाश में जब
सूरज ढलता है
याद दिलाता है कि
जीवन का सच क्या है
इन्सान तो बेकार ही
भाग रहा है
बिना किसी उद्देशेय के
उसे मालूम ही नही कि
उसे जाना कहाँ है
इन्सान को रोज
सिखाता है
आकाश का सूरज
इन्सान समझ नही पता है.
Saturday, October 3, 2009
बाज़ार से लायेंगे सांसें
मेरे देश में पीने को
पानी नही मिलता
किंतु
बिकता है यहाँ
पेप्सी और कोक
पानी बिकता है
बाज़ार में
किनले , बीबो और
बिसलेरी के नाम से
पानी कुदरत का है
किसने बेचा किसको
और
किसने ख़रीदा किससे
कौन पूछेगा ये सवाल किससे
आज पानी बिकता है
कल हवा बिकेगा
बाज़ार में
किंतु
बिकता है यहाँ
पेप्सी और कोक
पानी बिकता है
बाज़ार में
किनले , बीबो और
बिसलेरी के नाम से
पानी कुदरत का है
किसने बेचा किसको
और
किसने ख़रीदा किससे
कौन पूछेगा ये सवाल किससे
आज पानी बिकता है
कल हवा बिकेगा
बाज़ार में
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